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________________ दानफलविचार २२१ - अर्थ-जो दान साधुवोंकी प्रेरणासे किया गया है। एक घटिका मात्र के लिए साधुवोंके उपदेशसे जिसका भ्रम दूर होकर दिया गया है। सत्पात्रों के द्वारा अनेक प्रकारसे वर्णन करनेपर, उस वर्णनरूपी रससे जिसका अंतरंग आर्द्र होकर दिया गया है, पात्रोंके द्वारा उपदिष्ट दयारसके कारणसे जिसका क्रोध व लोभ प्रशमित होकर दिया गया है उसे करुणाके व्यापार करनेवाले साधुजन राजसदान कहते सात्विकदान दृष्ट्वाभ्युत्थाय गत्वा मुनिपमपि परीक्ष्याशु नत्वा पबंधी। दत्वा प्रक्षाल्य पीठं स्तुतिनतिगुणसंकीर्णनैः श्रातिशांति ॥ कृत्वैवोल्लोल्य संतयं च शुभहदयं दत्तभक्त्या मुनींद्रस्तृप्तः स्यायेन यत्तद्रचितमभिहितं सात्विकं दानमार्यैः।।११७॥ अर्थ-मुनिराजके आते ही उनको देखकर भक्तिसे उठे, उनको देखकर उनके चरणोंमें नमस्कार कर प्रतिग्रहण कर अंदर ले जावें, वहांपर उच्चासन देकर पादप्रक्षालन करें एवं अनेक प्रकार की स्तुति, भक्ति, पूजा आदि करके उनके मार्गश्रमको निवारण करें, तदनंतर उनको बहुत भक्तिसे, त्रिकरण शुद्धिसे आहारदान देकर संतुष्ट करें। साधुगण उसे सात्विकदान के नामसे कहते हैं ॥ ११७ ॥ उत्तमादि भेद. सात्विकमुत्तमदानं मध्यमदानं तु राजसाख्यं च । सर्वेषां दानानां जघन्यदानं तु तामसाख्यं स्यात् ॥११८॥ अर्थ-सर्व दानोंमें उत्तम दान साविक दान है, गजसदान मध्यम है, और सबसे जघन्य दान तामस दान है ॥ ११८ ॥ . सात्विकराजसतामसमुत्तममध्यमजघन्यदानमिदम् ॥ इव्यव्यय एकोऽत्र त्रिकरणभेदेन तद्भवेत्रिविधम् ॥११९॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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