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________________ २१०: दानशासनम् को पापकर्म नाश नहीं कर सकता है । जिस प्रकार जमीममें थोडा खोल गया हुआ एरंड का बीज नष्ट नहीं होता है । जैसे श्रेणिक राजाने मुनियोंको उपसर्ग किया तो भी उसका पाप उसके पूर्वसंचित विपुल पुण्यके होने से उसका अधिक घात नहीं कर सका, उस पुण्यके बल आगे उसने तीर्थंकर प्रकृतिका बंध किया ॥ ९१ ॥ भक्तिविशेष.. यापयति यापयिष्यति, साधूनस्वयमेव यः पुमाननिशं ॥ पूर्णाक्षयाकलंकाविघ्नाभयदानवान्स सुखी ॥ ९२ ॥ . स्तंभयति सर्वविघ्नान् प्रजादिपीडाश्च यत्प्रसादेन ॥ इहपरसुखयुगमयमनुभूत्वा सुखमनंतमपि लभते ॥ ९३ ॥ अर्थ-नो श्रावक साधुवोंको पात्रदान देकर स्वतः उनको भेजता है या अनेक सज्जनोंके साथ भक्ति से पहुंचाता है वह पूर्ण अक्षय, अकलंक व विनरहित अभयदानको प्राप्त करता है व सुखी होता है। जो श्रावक साधुबोंके मार्गमें आये हुए सर्व विघ्नों को दूर करता है, प्रजा आदिसे उत्पन्न पीडावोंको दूर करता है, वह उस पुण्यके प्रसादसे इहपरसुख को प्राप्तकर अनंतसुखात्मक मोक्षको भी प्राप्त करता है ॥ ९२ ॥ ९३ ॥ स्वक्षेत्रे कृषिको यथा त्वभयदानत्युक्तिभक्त्यन्वितः । स्वां भार्यामिह यापयन्निव सदा तत्तातगेह प्रभुः॥ राजा वा निजनीवृतं त्वभयदानत्युक्तिभाक्तिर्विना । दत्वान्नं स परं सुखं च लभते पात्राय दाता कयं ॥९॥ अर्थ-जिस प्रकार किसान अपने क्षेत्रमें अत्यधिक श्रद्धा व भक्तिसे युक्त होकर उसके संरक्षण करनेके लिए प्रयत्न करता है। एवं जिस १कार कोई सज्जन अपनी भार्याको उसके पिताके घर बहुत सुव्यवस्था के साथ पहुंचाता है । जिस प्रकार कोई राजा अपने प्रजावर्गको
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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