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________________ ટક दानशांसनम् यज्जिह्वारुचि याचितेपि न वचः श्रुत्वा स्त्रियो येन स - 1 क्रुध्यंश्वेतसि नास्य सद्मनि सदा भुंजे त्यजस्तच्छवन् ॥ तस्मात्तद्वितयापकीर्तिरघमेव स्यादुपालंभनं । लोके मौनमनारतं सुकृतिनः कुर्युस्स पुण्यप्रदम् ॥ २९ ॥ अर्थ - आहार लेते समय सिद्धांतमें मौन धारण करनेका आदेश है । कारण कि भोजन में कोई पदार्थ उनके रसनेंद्रियको स्वादिष्ट लगे तो उसे मांगने की भी संभावना रहती है । कदाचित् आहार देनेवाली स्त्रीने उस पदार्थको देनेसे नकार कर दिया या वहांपर न हो तो, उस अवस्था में मुनिके मनमें क्रोध आकर वह प्रतिज्ञा कर सकता है कि मैं इसके घर में अब भोजन करनेके लिए कभी नहीं आऊंगा, और उस घर के मालिकको क्रोध से अनेक प्रकारसे शाप दे सकता है । इससे दाता और पात्र दोनोंकी लोक में अपकीर्ति, निंदा होगी एवं दोनोंको पापबंध होगा । इसलिए पुण्यवान् लोग सदा लोकमें पुण्यप्रदान करनेवाले मौनको धारण करते हैं जिससे उपर्युक्त किसी भी प्रकारके दोषों का संभव ही न हो ॥ २९ ॥ 1 गुणमाह. सुनेः कर्म सुधर्मोपदेशनारचितं वचः । भावः स्वशुद्धात्मचिंता मौनं मुनिभिरीरितम् ॥ ३० ॥ मौनमभिमानशरणं चित्करणं पुण्यकरणमघहरणं । देवादिवश्यकरणं क्रुद्धरणं चित्तशुद्धिसुखकरणम् ॥ ३१ ॥ आगमनविघ्नहरणं मैत्रीकरणं विवादसंहरणं । रत्नत्रय संरक्षणमज्ञानविनाशकरणमपि काळे || ३२ ॥ अर्थ - मुनिकी क्रियाको मौन कहते हैं, धर्मोपदेशके लिए उपयोग किए वचनको भी मौन कहते हैं । अर्थात् धर्मोपदेशके लिए बोलने पर भी उससे भी पाप नहीं होता है वह मौनके समान ही है । अपने शुद्ध आत्मा के विचार करना भी मौन है । इस प्रकार महर्षियोंने
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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