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________________ दानशासनम् । प्राग्रेभैकांकुरा पश्चात् तत्र स्युर्बहवोऽकुराः । तथैका रुचिराया सा जानीयाद्रहुधापरा ॥ ६३ ॥ अर्थ-जिसप्रकार केलेका अंकुर पहिले एक रहनेपर भी उससे बादमें अनेक वृक्ष होते हैं, उसी प्रकार पहिले गुरूपदेश आदि निमितसे श्रद्धान होता है तदनंतर चारित्रादिक होते हैं ॥ ६३ ॥ रंभाकंदो जलाभावात् स्वयमेव विनश्यति । यथा तथैव केषां दृक् क्रोधादेव स्वयं क्षयेत् ॥ ६४ ॥ अर्थ-जिस प्रकार गर्मीमें जलके अभाव होनेसे केलेका कंद अपने आप नष्ट होता है, इसी प्रकार क्रोधादिक कषायरूपी उष्णत'से किसी २ का सम्यग्दर्शन अपने आप नष्ट होता है ॥६४॥ - मूलरंभादलच्छेदादग्रोद्भवफलक्षयः व्यवहारगंगस्य नाशे फलहतिस्तथा ॥ ६५ ॥ अर्थ-लेके वृक्षके मूल पत्तेको काटनेसे आगे उत्पन्न होनेवाले फलका नाश होता है, उसी प्रकार व्यवहारसम्यग्दर्शन के नाश होनेसे पारमार्थिक सम्यग्दर्शनरूपी फल नहीं मिल सकता है ॥ ६५ ॥ पुनरुत्पन्नतत्पत्रच्छेदात्फलहतिर्न वा । परमार्थगंगस्य हानिन फलहानये ॥ ६६ ॥ अर्थ-उसके पुनः उत्पन्न पत्तोंको काटनेसे जिस प्रकार फलके लिए कोई हानि नहीं है, उसी प्रकार परमार्थ सम्यग्दर्शनकी न कोई हानि होती है और न उसके फलकी हानि होती है ।। ६६ ॥ अधोमुखान्येव फलानि जाती तस्याः पुनश्चोर्ध्वमुखानि च स्युः । यथा सुदृक्पूर्वमयानुपायो- (१) प्यशेषकर्माणि निहंति पश्चात् ॥ ६७ ॥ अधोमुखा
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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