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________________ पात्रभेदाधिकारः wwvie सेनारूप रहनेवाले चतुःसंघके हृदयको कभी क्षुब्ध नहीं करना चाहिए ॥ ५८ ॥ यावज्जीवावधिस्तावत् कृतकर्मविशेषतः । यथा पूगस्सुफलदस्तथा कश्चित्सुदृक्पुमान् ॥ ५९ ॥ अर्थ-कोई २ सुपारकेि पेडके समान जबतक जीवन धारण करेगा तबतक अपने पूर्वपुण्यके उदयसे सम्यग्दृष्टि ही बना रहता बहुक्रियो भूरिफलोऽल्पक्रियोऽल्पफलप्रदः । निष्क्रिये सति निश्शेषसस्यवृक्षाः क्षयन्त्यरं ॥ ६॥ अर्थ-खेतमें किसान यदि बहुतसी कृषिक्रिया करता है तो बहुत फल उसे मिलते हैं । यदि अल्पक्रिया करता है तो अल्प फल ही मिलते हैं । बिलकुल क्रियारहित होनेपर सर्व सस्यवृक्ष नष्ट होते हैं। इसी तरह मनुष्य भी बहु क्रियावाला हो तो उसे बहुफल मिलते हैं। अल्प क्रियावान् हो तो अल्पफल व निक्रिय हो तो न कुछ फल मिलता हैं ॥ ६० ॥ ध्रुवांबुभूप्तसद्धीजः कालोचितकृतक्रियः । शोधितांकुरदोषोऽयं वीक्षमाणाक्षिवल्लभः ॥ ६१ ॥ रक्षकाणां ददातीव धृतसत्फलगुच्छकः । यथा द्रुमो दाक्षिणात्यो भाति कश्चित्सुदृक् तथा ॥ ६२॥ अर्थ-जिस प्रकार खूब पानीके स्थानमें बोया हुआ, कालोचित संस्कारोंसे युक्त, अंकुरदोषोंसे रहित नारियलका वृक्ष फलगुच्छोंसे युक्त होकर रक्षकोंके आंखोंको आनंद उत्पन्न करता है उसी प्रकार कोई २ निर्दोष सम्यग्दृष्टि देखनेवालोंको आनंद उत्पन्न करते हैं ॥ ६१ ॥ ६२॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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