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________________ १४४ मायवा केचिदेवात्र देहसंस्कारकारकाः । आत्मघातकदुर्भावा वैदिकब्राह्मणा इव ॥ ३६ ॥ अर्थ-कोई २ मुनि वैदिक ब्राह्मणोंके समान मायाचारसे देहसंस्कारोंको करते हैं और आत्मघात करनेवाले दुर्विचारोंको सदा मनमें लाते रहते हैं ॥ ३६ ॥ _ व्यवहत्यान्यदेशेषु नंष्ट्वा स्वैरार्जितं धनं । ये नरास्ते यथा केचित्स्वकायक्लेशतत्पराः ॥ ३७ ॥ अर्थ-जिस प्रकार कोई मनुष्य परदेश में व्यापार कर कमाये हुए धनको खोकर आता है, उसी प्रकार कोई २ मुनि व्यर्थ कायक्लेश कर जन्म खोते हैं ॥ ३७॥ केचिदूषवतिक्षेत्रे नित्याश्चितकृषिक्रियाः। अलब्धधान्या वर्तते यथास्युनिष्फलक्रियाः ॥ ३८ ॥ - अर्थ---कोई २ मूर्ख किसान जो कि सदा ऊसर भूमिमें ही कृषि करता रहता है परन्तु धान्यको पाता नहीं है । उसी प्रकार कोई २ मुनि अन्यथारूप क्रियाओं को करनेसे यथार्थ फलको पाते नहीं ॥३८॥ सर्वारंभपरिभ्रष्टाः केचित्स्वोदरपूर्तये । केचिस्वर्गसुखायैव केचिदैहिकभूतये ॥ ३९॥ अर्थ-समस्त आरंभोंसे भ्रष्ट होकर कोई २ मुनि अपने उदर पोषण के लिये दीक्षा लेते हैं। कोई स्वर्गसुखकी प्राप्तिके लिये और कोई ऐहिक संपत्तिकी प्राप्तिके लिये दीक्षा लेते हैं ॥ ३९ ॥ . दत्ते स स्याद्यथा दीक्षा यो मुनिर्बहिरात्मनः । काष्टांगारस्थापितश्रीविधरपिता यथा ॥ ४० ॥ - अर्थ-जो मुनि ऐसे बहिरात्मावोंको विना विचार किये ही दीक्षा दे देते हैं, वह उसी प्रकार की दीक्षा है जैसे काष्टांगारको सत्यंधर राजाने राज्यश्री देदी ।। ४० ॥
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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