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________________ १३४ दानशालनम् पात्रभेदाधिकारः श्रीमत्त्रिलोकभवनांतर सर्ववस्तु - । ग्राहिप्रबोधनिटिळाक्षिविराजमानं ॥ ज्ञानैकगोचरमशेषमुनींद्रबंध - । मिंद्राचितांत्रिमंईतमहं नमामि ॥ १ ॥ अर्थ - तीन लोकरूपी मकान में रखे हुए समस्त पदार्थों को ग्रहण करने में समर्थ केवलज्ञानरूपी ललाटनेत्रको धारण करनेवाले, सम्यग्ज्ञान मात्र गोचर, सर्व गणधरादिकोंसे वंदनीय, देवेंद्र से पूजित ऐसे अर्हत परमेष्ठीको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥ प्रतिज्ञा. कर्महद्धर्मकृत्पात्रं तस्य भेदानहं ब्रुवे । पात्रे देयं न चान्यत्र क्षेत्रे कृष्यधिपो यथा ॥ २ ॥ अर्थ – कर्मोंको नष्ट करने में उद्यत, धर्ममार्ग में प्रवृत्त व प्रवर्तक पात्रों के भेद मैं इस प्रकरण में कहूंगा, ऐसी आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं । पात्रों को ही दान देना चाहिये । अन्यत्र दान नहीं देना चाहिये । जिस प्रकार कि किसान निष्फल क्षेत्रमें बीज नहीं पेरा करता है || २ ॥ धार्मिक लक्षण. रत्नत्रयात्मको धर्मस्तमाचरति धार्मिकः । धर्माभिवृद्धये स्वस्य धार्मिके प्रीतिमाचरेत् ॥ ३ ॥ अर्थ - धर्म सम्यग्दर्शनज्ञानचास्त्रिरूप रत्नत्रयात्मक । उनको आचरण करनेवाला धार्मिक कहलाता है । अपने धर्मकी वृद्धिकेलिये धार्मिकों के प्रति प्रीति ( आदर - भक्ति ) बढाना धार्मिक मनुष्योंका कर्तव्य है ॥ ३ ॥ पात्रभेदकथादक्षैः पात्रं पंचविधं मतम् । तद्यथेति कृते प्रभे सूरिराह तदुत्तरम् || ४ ||
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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