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________________ दानशासनम् अपने बंधुजन, धार्मिक, इत्यादि को निंदा करता है उसकी आयु, यश संपत्ति, स्थान इतनाही नही वंशका भी नाश होता है ॥ १०३ ॥ सर्वशं परमागमं जिनमुनि दोषव्यपेतं व्रतं । यद्गोत्रं च गुरुं च निंदयति यो द्रव्यं च देवस्य यः ॥ आदत्ते द्विजबालगोत्रजहति योऽसौ कुतर्क करो। त्यल्पायुर्नरकादिदुर्गतिरभाग्यं तस्य सत्यं भवेत् ॥ १०४ अर्थ-सर्वज्ञ तीर्थकर, परमागम शास्त्र, तार्थंकरों के प्रतिकृति ऐसे जिनमुनीश्वर, दोषरहित चारित्र एवं सद्गोत्र, गुरु इत्यादिकी निंदा करता है एवं जिनमंदिर आदिके उपयोग में आनेवाले देवद्रव्यको जो अपहरण करता है, ब्रह्महत्या, बालहत्या व अपने बंधुहत्या जो करता है, एवं समीचीन विषयमें कुतर्क कर विसंवाद उपस्थित करता है वह अल्पायुष्यवाला होता है, एवं परभवमें नरकादि दुर्गतीमें ज.कर दुःख भोगता है । एवं पुण्यहीन होता है इसमें कोई भी संदेह नही ये घ्नंति तेजांसि नृपाश्च येषां तेषां क्षयेत्पूर्वगिरीदुवत्तत् । निस्तेजसो दुःखमयंति सद्यः श्वायंतगा भूरि यथा शशायाः अर्थ-जो राजा दूसरों के तेजको नष्ट करना चाहते हैं उनका तेज भी उदयाचल में प्राप्त चंद्रमाके समान निस्तेज बन जायगा, जिस प्रकार कुत्ते वगैरह पशुओंके बीच में फंसे हुए खरगोश इत्यादिका जीवन संकटमय रहता है इसी प्रकार उस मत्सरी राजाकाभी जीवन सदा संकटापन्न समझना चाहिये ॥ १०५ ॥ विप्रादिजनहिंसैव यस्य देशे च वर्तते ।। तस्यावासः पुरं देशो लक्ष्मीरन्यं समाश्रयेत् ॥ १०६ ॥ अर्थ-जिस राजाके राज्य में ब्रह्महत्या आदि हिंसात्मक प्रवृत्ति
SR No.022013
Book TitleDan Shasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovindji Ravji Doshi
Publication Year1941
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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