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________________ प्र. - दिदृक्षा, भव्यत्व के समान आत्मा से अभिन्न होकर भी निवृत्त हो जाय इसमें क्या हानि ? उ. - दिक्षा भव्यत्व के समान न्यायप्राप्त नहीं है, क्योंकि भव्यत्व केवल अर्थात् सर्वथा शुद्ध जीव रूप नहीं है किन्तु कर्मबद्ध जीव रूप है; जब कि दिदृक्षा तो आप मात्र जीव रूप ही मानते हैं, कारण पहले तो अनादिकाल से जीव में कोई 'महदादि तत्त्व का योग नहीं और दिदृक्षा होती है ऐसा आप कहते हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि भावी योग अपेक्षा से जीव के साथ महत्तत्त्व, अहंकार आदि का सम्बन्ध जब होगा तब वह अशुद्ध कहलायगा, लेकिन इसके पहले तो वह शुद्ध होता है, और वहां दिदृक्षा होती है; अतएव शुद्ध की स्वभावभूत दिदृक्षा अशुद्ध जीव के स्वभावभूत भव्यत्व के समान नहीं है। जब भावी योग नहीं था तब अकेली दिक्षा ही थी, वह तो सदा अविशिष्ट ही हुई, अतः वह स्वाभाविक होने से महदादि के वियोग के बाद मुक्तपने में भी होनी चाहिए। कदाचित् यह कहो कि दिदृक्षा का स्वभाव ही ऐसा है कि वह एकबार महदादि भावों से निर्मित विकार का दर्शन हो गया तब कैवल्य दशा में निवृत्त हो जाती है, लेकिन कैवल्य तो पहले की तरह पीछे भी तुल्य है, तो दिक्षा का पहले सद्भाव और बाद में अभाव होने का स्वभाव मानना अप्रमाणिक है; क्यों कि ऐसा मानने पर आत्मा से दिदृक्षा भिन्न सिद्ध होगी। कारण यह है कि वह प्रकृति ( महत् तत्त्व) निवृत्त होने पर निवृत्त होने से प्रकृति स्वरूप या प्रकृति समान हुई और प्रकृति तो पुरुष से भिन्न है तो दिक्षा भी भिन्न सिद्ध हुई । फलतः शुद्ध जीव में दिदृक्षा होना ये अप्रमाणिक है। अगर कल्पित दिदृक्षा मानी जाये तो वह भी प्रमाण सिद्ध नहीं है; कल्पित में प्रमाण क्या? इसलिए यही मानना उचित है कि आत्मा के भिन्न भिन्न परिणाम (अवस्था विशेष) होते हैं, अतः उसी के भिन्न भिन्न बन्धावस्था मोक्षावस्था माननी उचित है। अन्य के वास्तविक संयोग-वियोग सिवाय मुख्य- अनौपचारिक परिणाम विशेष नहीं हो सकते हैं। इसीसे संसार से मुक्ति और अनादिमान संसार सिद्ध होता है। ऐसा मानने पर निरुपचरितरूप से अर्थात् वास्तविकरूप से बंध और मोक्ष दोनों की सिद्धि होती है। यह प्ररूपणा द्रव्यनय की दृष्टि से हुई। पर्यायनय की दृष्टि से कर्म आत्मभूत नहीं हैं और कल्पित भी नहीं हैं अर्थात् असत् वासना आदि रूप भी नहीं हैं, क्योंकि आत्मभूत या असत् मानने से वह केवल बोध स्वरूप ही सिद्ध हुई, अतिरिक्त कुछ नहीं। तब संसार एवं मोक्ष में कोई भेद सिद्ध नहीं हो सकता ॥ ७ ॥ १. सांख्य मत के अनुसार 'मैं एक हूं, बहुत होऊं' ऐसी दिदृक्षा होती है, तत्पश्चात् शुद्ध आत्मा का प्रकृतिनिष्पन्न महत् (बुद्धि) एवं अहंकार के साथ संबंध होता है और वह संसार को प्राप्त होता है इस प्रकार महत् आदि के साथ संबंध होने से पूर्व मात्र दिदृक्षा ही होती है। श्रामण्य नवनीत ३५
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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