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________________ ... उ. - सकल कर्म क्षय होने के अनन्तर अनन्त सुख की प्राप्ति के स्वभाव के समान यह भी सिद्ध जीव का स्वभाव है। (कर्मभार हट जाने से ऊर्ध्वगतिशीलता के कारण लोकान्त में जाकर ठहरते हैं,आगे गतिसहायक धर्मास्तिकाय द्रव्य न होने से गति रुक जाती है।) ____ वहां के अनन्त सुख के लिए कोई उपमा विद्यमान नहीं है, परन्तु उसके सद्भाव में सिद्ध जीव का अनुभव ही प्रमाण है। कुमारी पतिसुख की तरह संसारभोगी मोक्ष का सुख कैसे जान सके? सिद्धसुख स्वसंवेद्य है। इसमें सर्वज्ञ भगवान का वचन प्रमाण है और वह एकान्ततः सत्य है। उनमें असत्य बोलने का कोई कारण राग-द्वेष, या अज्ञान नहीं है और कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। सिद्धों के सुख को समझाने के लिए केवल यह उदाहरण ही दिया जा सकता है ।।४।। - मूल - सव्वसत्तुक्खए, सव्ववाहिविगमे, सव्वत्थसंजोगेणं सविच्छासंपत्तीए जारिसमेअं, इत्तोडणंतगुण। तं तु भावसत्तुक्खयादितो. रागादयो भावसत्तू, . कम्मोदया वाहिणो, परमलद्धीओ उ अट्ठा, अणिच्छेच्छा इच्छा। एवं सुहुममेअं न तत्तओ इयरेण गम्मइ, जइसुहं व अजइणा, आरुग्गसोहं व रोगिण त्ति विभासा। अचिंतमेअंसरुवेणी साइअपज्जवसिअंएगसिद्धाविक्खाए, पवाहओ अणाई। तेऽवि भगवंतो एवं। तहाभब्वत्ताइभावओ। विचित्तमेअं तहाफलभेएण। नाविचित्ते सहकारिभेओ, तदविक्खो तओ त्ति, अणेगंतवाओ तत्तवाओ। स खलु एवं, इहरहेगंतो। मिच्छत्तमेसो, न इत्तो ववत्था, अणारिहअमेअं ॥५॥ ___ अर्थःजैसे किसी को समस्त शत्रुओं का क्षय होने से, सब व्याधियों का अभाव होने से, सर्व अर्थों का संयोग होने से और सब प्रकार की इच्छाएँ फलीभूत हो जाने पर जो सुख प्राप्त हो, उसकी अपेक्षा सिद्धों का सुख अनन्तगुणा होता है, क्योंकि उनके भावशत्रुओं का क्षय आदि हो चुका है। वह इस प्रकार, राग-द्वेष-मोह जीवके अपकारी होने से भावशत्रु हैं, उन सबका क्षय हुआ है। कर्म का उदय पीडाजनक होने से व्याधि रूप है। वे कर्म नष्ट हो गये हैं। उत्कृष्ट लब्धियां अर्थ हैं, वे प्राप्त हो चुकी हैं। और निःस्पृहता (सर्व संग के त्याग) की इच्छा ही इच्छा है, वह तृप्त हो गयी है। इस प्रकार सिद्धों का सुख सूक्ष्म है, उसको तात्त्विक रूप से कोई दूसरा जान नहीं सकता; जैसे यति के सुख को यति के सिवाय अन्य कोई नहीं जान सकता, क्योंकि वह विशिष्ट प्रकार के क्षायोपशमिक भाव से ही अनुभवनीय है और निरोगता के सुख को रोगी नहीं जान सकता, सन्निपात न होने का सुख सन्निपाती कैसे जान सके? सिद्धों का सुख वास्तव में अचिन्तनीय है, क्योंकि वह बुद्धि का विषय ही नहीं है। वह सुख एक श्रामण्य नवनीत ३२
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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