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________________ निव्विण्णे तत्तओ तओ सुगुरुवयणेण अणुट्ठाणाइणा तमवगच्छिअ, पुब्बुत्तविहाणओ पवन्ने सुकिरियं पव्वज्जं, निरुद्धपमायाचारे असारसुद्धभोई, मुच्चमाणे कम्मवाहिणा, निअत्तमाणिट्ठविओगाइवेअणे, समुवलब्भ चरणारुग्गं पवड्ढमाणसुहभावे, तल्लाभनिव्वुईए तप्पडिबंधविसेसओ, परीसहोवसग्गभावे वि तत्तसंवेअणाओ, कुसलासयवुड्ढी थिरासयत्तेण, धम्मोवओगाओ सया थिमिए, तेउल्लेस्साए पवड्ढइ। गुरुं च बहुमन्नइ जहोचिअं असंगपडिवत्तीय निसग्गपवित्तिभावेण । एसा गुरुई विआहिआ, भावसारा विसेसओ भगवंतबहुमाणेणं । 'जो मं पडिमन्नड़ से गुरु' ति तदाणा | अन्नहा, किरिआ अकिरिआ, कुलडा (टा) नारीकिरिआसमा, गरहिआ तत्तवेईणं अफलजोगओ । विसण्णतत्तीफलमित्थ नायं। आवट्टे खु तप्फलं, असुहाणुबंधे ॥७॥ अर्थ : इसी प्रकार कर्म रूपी व्याधि से ग्रस्त जीव जन्म-जरा-मरण आदि की वेदना का अनुभव कर चूका है, उस वेदना को दुःखरूप जानकर जो वास्तव में उससे उद्विग्न हो जाता है। वह सद्गुरु की वाणी सुनकर अनुष्ठानादि द्वारा कर्म व्याधि के स्वरूप को पहचान करके, पूर्वोक्त विधि के अनुसार सम्यक् चिकित्सा क्रिया स्वरूप प्रव्रज्या को अंगीकार करता है। फिर स्वेच्छा से प्रमाद सेवन को त्याग संयमानुकूल अन्त प्रान्त (रुखा-सूखा) और निर्दोष आहार करके ज्यों-ज्यों कर्म व्याधि से मुक्त होता जाता है, त्यों-त्यों मोह के हटने से इष्ट वियोग अनिष्ट-संयोग आदि द्वारा उत्पन्न होने वाली वेदना दूर होती जाती है, अर्थात् उन वेदना का अनुभव वह नहीं करता। सम्यक् स्वानुभव से चारित्र रूपी आरोग्य का संवेदनकर उसे अधिक चारित्र - आरोग्य की रुचि बढ़ती है। कर्म व्याधि के बहुत से विकारों से निर्वृत्त होने के कारण चारित्र रूपी आरोग्य का कतिपय लाभ संपादित होने से वह चारित्रारोग्य के प्रति विशेष आग्रहशील बनता है। अतएव क्षुधादि परीषह और दिव्य आदि उपसर्ग आने पर भी (१) तत्त्व संवेदन यानी सम्यक् ज्ञान होने से, तथा (२) क्षायोपशमिक भाव रूपी कुशलाशय (शुभ भाव ) की वृद्धि होने के कारण चित्त की स्थिरता होने से एवं (३) अमुक समय अमुक क्रिया करनी है ऐसी इतिकर्त्तव्यता की जागृति होने से और (४) सदा राग द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित (प्रशान्त) होने से उसकी शुभ प्रभाव रूपी तेजोलेश्या बढ़ती चली आती है, एवं भाव वैद्य समान गुरु का उचित रूप से और निःसंगभाव से ( स्वार्थ या दृष्टिराग से नहीं, किन्तु पारमार्थिक दृष्टि से) बहुमान करता है। ऐसे निःसङ्ग भाव से गुरु का स्वीकार (प्रतिपत्ति) उसकी सहज प्रवृत्ति बन जाती है। ऐसी गुरु की प्रतिपत्ति बहुत उच्चकोटि की और महत्त्वपूर्ण कही गयी है, क्योंकि इसमें कोई लोभादि औदयिक भाव न होने से वह विशेषतया असङ्ग प्रतिपत्ति है, श्रामण्य नवनीत २५
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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