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________________ सुनने पर उसे हेय-उपादेय के विषय में अभिनिवेश कदाग्रह नहीं होता। अल्पविराधना वाला तो मात्र अनभिनिवेश नहीं किन्तु उसे अंगीकार भी कर लेता है और कोई अल्पतर विराधना वाला मात्र स्वीकार तो क्या! क्रिया करना भी आरंभ कर देता है। इस प्रकार विराधना होने पर भी मार्गगामी के सूत्र का अध्ययन, अध्ययन ही है, क्योंकि उसमें सम्यग्ज्ञान के अंश का योग होता है। पूर्वोक्त विराधक नियम से बीज अर्थात् सम्यक्त्व से युक्त होता है, क्योंकि यह विराधना सिर्फ अनिरुपक्रम क्लिष्ट कर्म वाले मार्गगामी को ही हो सकती है। जो क्लिष्ट कर्म से रहित है, वह सबीज यथोक्त मार्गगामी हो सूत्रोक्त क्रिया करने वाला, अष्ट प्रवचनमाता से युक्त अर्थात् पांच समितियों और तीन गुप्तियों से सम्पन्न होता है।।३।। मूल - अणत्थपरे एअच्चाए अविअत्तस्स सिसुजणणीचायनाएण। विअत्ते इत्थ केवली एअफलभूए। सम्ममेअं विआणइ दुविहाए परिण्णाए ॥४॥ अर्थः अष्ट प्रवचनमाता का त्याग अव्यक्त अपरिपक्व (भाव से बाल) जीव के लिए उसी प्रकार अनर्थकारी होता है जिस प्रकार कोई छोटा बालक अपनी जननी का परित्याग कर दे। व्यक्त तो प्रस्तुत में प्रवचनमाता के फल स्वरूप केवली भगवान ही हैं। वे ही दोनों प्रकारकी परिज्ञा (ज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा) से यह सब भली भांति जानते हैं। यहां ज्ञ परिज्ञा अवबोध रूप है। और प्रत्याख्यान परिज्ञा ज्ञान सहित क्रिया रूप है ।।४।। __ मूल - तहा आसासपयासदीवं संदीणाऽथिराइभेअं, असंदीणथिरत्थमुज्जमइ जहासत्तिं असंभंते अणूसगे असंसत्तजोगाराहए भवइ। उत्तरुत्तरजोगसिद्धीए मुच्वइ पावकम्मण ति विसुज्झमाणे आभवं भावकिरिअमाराहेइ, पसमसुहमणुहवइ, अपीडिए संजमतवकिरिआए, अबहिए परीसहोवसग्गेहिं वाहिअसुकिरिआनाएण॥५॥ अर्थ : वह प्रव्रजित हुआ साधु जानता है कि संसार सागर में भ्रमण करते हुए प्राणियों के लिए चारित्र, और मोहान्धकार युक्त दुःखार्णव में पतित जीवों के लिए ज्ञान, दीव (द्वीप तथा दीप) के समान है, अर्थात् चारित्र आश्वासन (स्थिराश्रय) देने के कारण द्वीप के समान है और ज्ञान मोह मिथ्यात्व रूपी अंधकार को दूर करने के कारण दीपक के समान है। द्वीप दो प्रकार का होता है जल की तरंगों से डूब जाने वाला और नहीं डूबने वाला। इसी प्रकार दीप भी दो प्रकार का होता है स्थिर और अस्थिर। क्षायोपशमिक चारित्र और ज्ञान अस्थिर-डूब जाने वाले द्वीप और बुझ जाने वाले दीप के समान है और क्षायिक चारित्र तथा ज्ञान क्रमशः कभी न डूबने वाले द्वीप के समान और स्थिर दीप (रत्न द्वीप) के समान है। वह मुनि इनमें से न डूबने वाले द्वीप (क्षायिक चारित्र) और श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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