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________________ पंच सूत्र [द्वितीय सूत्र] साधुधर्म - परिभावना मूल - जायाए धम्मगुणपडिवत्तिसद्धाए भाविज्जा एएसिं सरुवं, पयइसुंदरत्तं, अणुगामित्तं, परोवयारित्तं, परमत्थहेउत्तं तहा दुरणुचरत्तं, भंगे दारुणतं, महामोहजणगत्तं भूओ दुल्लहत्तं ति ॥१॥ अर्थः प्रथम सूत्र में धर्मगुणों के बीजाधान का कथन किया गया है। वह बीज जब पकता है तो धर्मगुणों (व्रतों) की सन्मुखता प्राप्त होती है, आत्मा में उन गुणों को जाग्रत करने की परिणति उत्पन्न होती है। उस समय मनुष्य का क्या कर्तव्य है, वह इस प्रकरण (सूत्र) में बतलाते हैं : मिथ्यात्व आदि कर्मों का क्षयोपशम होने से आत्मा में धर्मगुणों की प्राप्ति की श्रद्धा (रुचि) उत्पन्न हो जाने पर धर्मगुणों (अहिंसादि व्रतों) के स्वरूप का इस प्रकार भावित चिंतन करना चाहिए कि 'वे जीवके संक्लिष्ट परिणाम को दूर करते हैं इसलिए वे स्वभावतः सुन्दर हैं, वे भवान्तर में भी संस्कार रूप से साथ चलने वाले हैं, स्व पर को पीड़ादिक नहींकरने वाले होने से स्वपरके उपकारी हैं और परम्परा से परमार्थमोक्ष के कारण हैं, इन बातों का भी विचार करना चाहिए। साथ ही, यह भी विचारना चाहिए कि 'धर्मगुणों' (व्रतों) का आचरण करना कोई हँसी खेल नहीं है, इनका आचरण करने में बाह्य और आन्तरिक अनेक कठिनाइयाँ आती हैं क्योंकि इनका निरन्तर अभ्यास नहीं है। इन गुणों-व्रतों का स्वीकार करके (प्रमाद से) भंग करना अत्यन्त भयंकर होता है। क्योंकि उससे जिनाज्ञा का भंग होता है और दुर्गति होती है। ऐसा करने से महामोह की उत्पत्ति होती है और विपक्ष (हिंसादि अधर्म) के अनुबंध की पुष्टि होने के कारण भवान्तर में उन धर्मगुणों (व्रतों) की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है।।१।। मूल - एवं जहासत्तीए उचिअविहाणेणं अच्वंतभावसारं पडिवज्जिज्जा। तं जहा १-थूलगपाणाइवायविरमणं, २-थूलग मुसावायविरमणं, ३-थूलग अदत्तादाणविरमणं, ४-थूलग मेहुणविरमणं, ५-थूलग परिग्गहविरमणमिच्चाइ॥२॥ अर्थ : इस प्रकार अपनी शक्ति से अन्यून-अनधिक, शास्त्रोक्त विधि-पुरस्सर, श्रामण्य नवनीत
SR No.022004
Book TitleSramanya Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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