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________________ ( ११४ ) गुणस्थानक्रमारोह. है अतः यहाँ पर विशेष नहीं लिखा । एवं असंख्य प्रदेशीय होने पर भी आत्मा शरीर नाम कर्मोदयसे शरीर प्रमाण न्यूनाधिकताको धारण करती है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा आत्मा राग द्वेष विकल्पोंसे रहित है तथापि अशुद्ध नयसे शुभाशुभ कर्मोंको भोगती है। शुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा आत्मा अनन्त ज्ञान दर्शनादि गुणोंको धारण करने वाली होनेके कारण सिद्ध स्वरूप ही है, परन्तु व्यवहार नयसे कर्मोंपाधिकी सत्ताके कारण निजात्म स्वरूपको न प्राप्त करने से जीवात्मा कहाती है । आत्माका मूल स्वभाव उर्ध्व गति करनेका है, तथापि वह कर्मोंके वशीभूत होकर ऊँची, नीची तथा तिरछी गति करती है। बस इसी प्रकार पिण्डस्थ ध्यान सप्तभंगी द्वारा आत्म तत्वका चिन्तवन करना चाहिये । संसारमें प्रत्येक पदार्थ स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा अस्ति रूप है । आत्माके अन्दर ज्ञान, दर्शन, चारित्र वगैरह गुण सदा काल वर्तमान तया स्थित हैं, इस लिए स्याद् अस्ति कहा जाता है । देश, काल, क्षेत्र, भावादि अपेक्षित आत्मा दूसरे पदार्थों की अपेक्षा नास्ति रूप है । जैसे आत्मामें अचेतनत्व होनेके कारण स्पा नास्ति कहा जाता है । संस्कृत भाषामें स्यात् शब्द अव्यय है और अनेकान्त वाचक है, इस लिए इसका कथंचित् अर्थ लिया जाता है । संसारके समस्त पदार्थ अपने अपने द्रव्यकी अपेक्षासे अस्ति रूप और पर द्रव्यकी अपेक्षासे नास्ति रूप हैं । जिस तरह आत्मायें चैतन्यका अस्तित्व हैं और जड़ताका नास्तित्व है। बस इसी लिए आत्मा के अन्दर अस्ति नास्ति एक ही समय कहा जा सकता है । पदार्थका मूळ स्वरूप एकान्त तया नहीं कथन किया जाता, क्योंकि एक पदार्थमें अस्ति नास्ति दोनों ही धर्म रहे हुए हैं, यदि केवल I www
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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