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________________ mmmmmmmmmmmmar प्रमादका अभा माप्त होता है। मन्दता ह त्वमुत्तमम सातवाँ गुणस्थान. हीनतासे महाव्रतोंको धारण करनेवाला मुनि अप्रमत्त होता है । व्याख्या-महावतोंको धारण करने वाला मुनिराज अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थानमें रहा हुआ संज्वलन नामक चौथे कषायों तथा नव मोकषायोंका उदय मन्द होने पर याने अतीब्र विपाकोदय होने पर और पाँच प्रकारके प्रमादका अभाव होनेसे अप्रमत्त दशाको प्राप्त होता है। ज्यों ज्यों पूर्वोक्त कषायोंकी मन्दता होती जाती है त्यों त्यों सातवें गुणस्थानमें रहने वाले योगीकी अधिकाधिक अप्रमत्त दशा होती है । इसके लिये शास्त्रमें भी फरमाया है-यथा यथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि । तथा तथा समायाति संवित्तौ तत्वमुत्तमम् ॥१॥ अर्थ-सुलभतासे प्राप्त हुआ पाँचों इन्द्रियों संबन्धि विषय सुख ज्यों ज्यों मनुष्यको रुचिकर नहीं होता त्यों त्यों उसे सद्ज्ञानमें उत्तम तत्त्वकी प्राप्ति होती जाती है और ज्यों ज्यों उत्तम तत्वकी प्राप्ति होती जाती है त्यों त्यों सुलभ विषय सुख भी उसे रुचिकर नहीं होता। ___ अप्रमत्त गुणस्थानमें रहा हुआ मोहनीय कर्मको उपशम और क्षय करनेमें निपुण होकर योगी पुरुष जिस तरहसे सद् ध्यानका प्रारंभ करता है वह बताते हैंनष्टाशेषप्रमादात्मा, व्रतशीलगुणान्वितः। ज्ञान-ध्यान-धनी मौनी, शमन-क्षपणोन्मुखः ॥३३॥ सप्तकोत्तरमोहस्य, प्रशमाय क्षयाय वा। सद्धयान साधना रम्मं कुरुते मुनिपुङ्गवः ॥ ३४॥ श्लोकार्थ-जिसका संपूर्ण प्रमाद नष्ट हो गया है, व्रत और शुद्धाचारसे संयुत तथा ज्ञान ध्यान धनवाला और मौन व्रतको रूचिकरचा इन्द्रियों
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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