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________________ www~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ (१०८) गुणस्थानक्रमारोह. लोक व्यवहारजन्य पुण्यको प्राप्त कर सकते । अर्थात् वे लोग व्यवहार और निश्चय दोनोंसे भ्रष्ट होते हैं। ___ अब शास्त्रकार जो कुछ करणीय है सो फरमाते हैं तस्मादावश्यकैः कुर्यात् , प्राप्तदोष-निकृन्तनम् । यावन्नाप्नोति सद्ध्यान-मप्रमत्त गुणाश्रितम् ॥३१॥ श्लोकार्थ-जब तक अप्रमत्त गुणाश्रित सद्धर्म ध्यान प्राप्त न होवे तब तक प्राप्त किये हुए दोषोंको आवश्यकादिसे नष्ट करे । ____ व्याख्या-पूर्वोक्त हेतुसे प्रमत्त गुणस्थानमें रहने वाले मुनिराजको अप्रमत्त गुणस्थानमें प्राप्त होने वाला सद्धर्म ध्यान जब तक प्राप्त न हो तब तक दिन संबन्धि अतिचारजन्य पाप कर्मोंको उसे आवश्यकादि क्रियानुष्ठानसे ही नष्ट करना चाहिये । प्रमत्त गुणस्थानमें रहा हुआ प्राणी प्रत्याख्यानीय चार कषाणोंका बन्ध नहीं करता, इस लिए त्रेसठ कर्म प्रकृतियोंका बन्ध करता है और तिर्यंच गति, तिर्यच आयु, नीच गोत्र, उद्योत नामकर्म, तथा प्रत्याख्यानीय चार कषाय, इन आठ कर्म प्रकृतियोंके उदयका अभाव होनेसे तथा आहारक शरीर और आहारक अंगोपांगका उदय होनेसे ८१ एक्यासी कर्म प्रकृतियोंको वेदता है तथा एकसौ अड़तीस कर्म प्रकृतियोंको सत्तामें रखता है। ॥ छठा गुणस्थान समाप्त ॥ अब अप्रमत्त नामक सातवाँ गुणस्थान लिखते हैंचतुर्थानां कषायाणां, जाते मन्दोदये सति । भवेत्प्रमाद-हीनत्वादप्रमत्तो महाव्रती ॥ ३२ ॥ श्लोकार्थ-चौथे कपायोंका मन्दोदय होने पर प्रमादकी
SR No.022003
Book TitleGunsthan Kramaroh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijaymuni
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1919
Total Pages222
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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