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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९०३ --- - - - भोगवन्दिका टीका बत्र २५० मयस्वरूपनिरूपणम् मन्यते, क्रियारूपत्वेन अन्योर्मुक्ति प्रतिप्रधानकारणत्वात् । सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिक तु तदुपकारकमात्रे, अत एव ते गौणे, तस्मादेतत्सामायिकद्वयम् अयं क्रियानयो नेच्छतीति द्वितीयः पक्षः । अत्र ज्ञाननयक्रियानयावुभयावपि सयुक्तिको निर्दिष्टौ, तत्र को प्रायः क उपेक्षणीय इति शिष्या नावबुध्येरन , अतः स्वसम्मत पक्षं प्रदर्शयितुमाह-'सब्वेसिपि' इत्यादि। सर्वेषामपि स्वतन्त्रसामान्यविशेषपादिना नामस्थापनादिवादिना वा समस्तानामपि नयानां, न तु नयद्वयस्यैव, बताव्यता-परस्परविरोधिनीमुक्तिं निशम्य श्रुत्वा इह तत् सर्वनयविशुद्धं-सर्वनय. सम्मतं तस्यरूपतया ग्रासम् , यदाश्रित्य मुनिश्चरणगुणस्थितः-चरण चारित्रं क्रिया, ही मानी जानी है। इस प्रकार यह क्रियानर चतुर्विध सामायिक में से देशविरति और सर्वविरति इन दो सामायिकों को ही मानता है। क्योंकि ये तीनों सामायिक क्रियारूप हैं। इसीलिये इन में मुक्ति प्राप्ति के प्रति प्रधान कारणता है, ऐसी यह नयव्यवस्था देता है। तथा सम्यक्त्वसामाषिक और श्रुतसामायिक ये दो सामायिक केवल इसके उपकारक है। इसलिये मुक्ति प्राप्ति में ये साक्षात् कारण न होकर गौण कारण है । अतः क्रियानय की दृष्टि में इनकी मान्यना नहीं है। इस प्रकार यह द्वितीय पक्ष है। यहां ज्ञान नग और क्रियानय ये दोनों भी नय सयुक्तिक कहे गये हैं। तष शिष्य को यह संदेह हो सकता है कि इनमें कौन ग्राह्य है और कौन अग्राह्य-उपेक्षणीय है। इसलिये सूत्रकार स्वसम्मत पक्ष को प्रकट करने के लिये कहते हैं कि-- (सम्वेसि पि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता । तं सवनयविसुद्ध जं चरणगुणाष्ट्रभो साहू ) स्वतन्त्र सामान्य और विशेषवादियों की એમનામાં મુકિત પ્રાપ્તિના પ્રતિ પ્રધાન કારણતા છે, એવી આ નય વ્યવસ્થા બતાવે છે. તથા સમ્યફ વસામાયિક શ્રુતસામાયિક એ બે સામાયિક ફકત એના ઉપકારક છે. એથી મુકિત પ્રાપ્તિમાં એ સાક્ષાત્કાર નહિ પણ ગણકારણે છે. એટલા માટે કિયાનયની દૃષ્ટિમાં એમની માન્યતા નથી. આ પ્રમાણે આ દ્વિતીય પક્ષ છે. અહી જ્ઞાનનય અને ક્રિયાનય એ બને ન કહેવામાં આવ્યા છે. ત્યારે શિષ્યને આ વિષે સંદેહ ઉત્પન્ન થાય છે કે, આમાંથી કયે ગ્રાહ્ય અને ક અગ્રાહ્ય-ઉપેક્ષણ-છે એથી સૂત્રકાર સ્વસ मत पक्षने ५४८ ४२१। भाटे हे छ -(सव्वेसि पि नयाणं बहुविश्वत्तव्वयं निसामित्ता तं सवायविसुद्धं जं चरणगुणदिओ साहू) स्वतत्र सामान्य अने વિશેષવાલીઓની નામ સ્થાપના વગેરે વાદીઓની અથવા સમતનની વકત For Private And Personal Use Only
SR No.020967
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages928
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size21 MB
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