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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७१ सलक्षणशृङ्गाररसनिरूपणम् ८३७ सङ्गमेच्छायाः संजननः समुत्पादकः, तथाच मण्डनविलासविब्बोकहास्यरमणलिङ्गः-मण्डनम्-अलङ्कारैर्गात्रालङ्करणम् , विलासः-प्रियसमीपगमने यः स्थानासनगमनविलोकितेषु विकारोऽकस्माच्च क्रोधस्मितचमत्कारमुखविलयनं स विलासः, विब्बोका=अभिमतमाप्तोवपि गर्वादनादरः, सापराधस्य सकचन्दनादिना संयमनं ताडनं च, हास्यम्=प्रतीतार्थम्, लीलासकामगमनमाषितादि रमणीयचेष्टा, अलब्धपियसमागमया स्त्रिया स्वचित्तविनोदार्थ पियस्य या वेषगतिदृष्टिहसितमः णितैरनुकृतिः क्रियते सा वा लीला, रमणं-क्रीडनम्, एतानि लिङ्ग-चिहं यस्य स तथाविधो भवति । उदाहरणमाह-शृङ्गारो रसो यथा-श्यामा-षोडशवर्षदे यहां पर कार्य में कारण के उपचार से रति के कारणभूत जो ललना आदि पदार्थ हैं, वे ग्रहण किये गये हैं। उनके साथ संगम की इच्छा का जनक यह शृङ्गार रस होता है। (मंडणाविलासविछोय, हास, लीलारमणलिंगो) अलंकारों से शरीर को सज्जित अलंकृत, करना इसका नाम 'मण्डन' है । प्रिय के समीप जाने में जो स्थान, आसन , गमन , एवं विलोकन में विकार और अकस्मात क्रोध , स्मित, चमत्कार ,मुख विक्लवन होता है, वह विलास है। अभिमत को प्राप्ति में भी गर्व (अहंकार ) से अनादर , करना और अपराधसहित का स्रक-माला चंदन आदि से संयमन करना, ताडन करना, यह विधोक है।हास्य-हँसना। सकाम गमन एवं भाषित आदि जो रमणीय चेष्टाएँ हैं, वै 'लीला' हैं। अथवा जिस स्त्री को प्रिय का समागम अलमय हो रहा है, वह जो अपने चित्त को विनोदित करने के लिये प्रिय के वेष અરતિના કારણે જે લલના વગેરે પદાર્થો છે તેમનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. तेमनी साथे मनी ४२छान मा१४ २ ॥२ २४ डाय छे. (मंडणविलामविब्बोय, हास, लीला रमणलिंगो) मरोथी शशश्न असतिઅલંકૃત-કરવું તેનું નામ “મંડન” છે. પ્રિયની પાસે જતાં જે સ્થાન આસન, ગમન અને વિલેકનમાં વિકાર તેમજ ઓચિંતા-ક્રોધ, મિત. ચમકાર, મુખવિલન હોય છે, તે વિભાસ છે અભિમતની પ્રાપ્તિમાં પણ ગવ' (અહંકાર)થી અનાદર કર, તેમજ અપરાધીનું અક-માળા-ચંદન વગેરેથી સંયમન કરવું, તાડન કરવું વિક છે હાસ્ય-હસવું સકામ ગમન અને ભાવિત જે રમણીય ચેષ્ટાઓ છે, તે “લીલા” છે. અથવા જે સ્ત્રી પ્રિયસમાગમ મેળવી શકી નહીં તેવી સ્ત્રી પિતાના ચિત્તને પ્રસન્ન કરવા માટે પ્રિયના वेषनु गतिनु रन, यनु, पातुं अनु४२५ रे छ, ते 'elat' . For Private and Personal Use Only
SR No.020966
Book TitleAnuyogdwar Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages864
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size25 MB
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