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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥६०॥ ॥ ६१ ॥ ॥६२ ॥ ॥६३ ॥ ॥६४॥ ॥ ६५ ॥ ए चारि वि जिणवइ समइ, विगइ उपडि कुट्ठाउ। जो वज्जेसइ वज्जिहिइ, सो चउगइ भव ठाउं दक्खा पाणय लढुएहिं, मच्छंडिय सुघएहि । एवं पाएहि अण्णहि वि, कि मज्जाइहिं तेहि मिल्लि पिलुंखह पिप्पलह, कवूवर फलाई। वड़ उंबर साहीण तह, किमि कलवल सवलाई छहिउ वि भक्खंतरु अवरु, अरहण्णवि समयण्णु । पंचुंबर संभव फलई, कोइ न खाइ सयणु बीहहिं जेणं तहु भवहु, सुमुणिय पवहण तत्त । सव्व अणंत काइयई ते भक्खइ न सुसत्त मिस्सइ आमिण गोरसिण वियलई मुयह सुदूरि । जेण तहिं दिट्ठा केवलिहिं सुहुमा जिय अइचूरि जं अण्णुवि फलु फुल्ल दलु मीसिउ जंतु सएहि । संधाणं संसत्तु तह धम्मिय दूरि सुएहिं जूय रमंतिहिं कलु मइलिज्जइ मुच्चइ सच्चउं जणि लज्जिजइ। किज्जइ सोउ मुकउ मिल्लिजइ भवण दविणु सयलुवि हारिज्जइ दाणु न दिज्जइ भोग न भुंजहिं मुय पियय मपिय माइ सुसिज्जहिं । देव गुरु वि तिण सम वि गणिज्जहिं जुत्ताजुत्तहिं नवि याणिज्जहिं अप्पणु कोउअइ वारवइज्जइ दुग्गइ सरलइ ए[प]हिं वंचिज्जइ । ॥६६॥ ॥ ६७ ॥ ॥ ६८ ॥ २33 For Private And Personal Use Only
SR No.020962
Book TitleShastra Sandeshmala Part 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinayrakshitvijay
PublisherShastra Sandesh Mala
Publication Year2009
Total Pages442
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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