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________________ -19:१-१९] १. धर्मोपदेशामृतम् 18) क्वाकीर्तिः क्व दरिद्रता क विपदः क क्रोधलोमादयः चौर्यादिव्यसनं क्व च क नरके दुःखं मृतानां नृणाम् । चेतश्चेहरुमोहतो न रमते घूते वदन्त्युन्नत प्रज्ञा यद्भुवि दुर्णयेषु निखिलेष्वेतद्धरि मर्यते ॥ १८॥ 19) बीभत्सु प्राणिघातोद्भवमशुचि कृमिस्थानमश्लाघ्यमूलं हस्तेनाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्प्रष्टुमालोकितुं च । तन्मांसं भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं यस्य साक्षात् पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्का गतिर्वा न विद्मः ॥ १९ ॥ अपि तु ज्ञानवान्नाशीकरोति ॥ १७ ॥ उन्नतप्रज्ञा विवेकिनः । इति वदन्ति । इतीति किम् । चेत् यदि । चेतः मनः । द्यूते न रमते। कुतः । गुरुमोहतः । द्यूते न रमते तदा अकीर्तिः क्व अपयशः क । क्व-शब्दः महदन्तरं सूचयति । चेन्मनः गुरुमोहतः द्यूते न रमते तदा व दरिद्रता । व विपदः । क्व कोधलोभादयः । क् चौर्यादिव्यसनम् । क्व मृतानां नृणां मनुष्याणां नरके दुःखम् । चेन्मनः छूते न रमते । यद् यस्मात् । भुवि पृथिव्याम् । निखिलेषु व्यसनेषु । एतद् द्यूतम् । धुरि आदौ । स्मर्यते कथ्यते ॥१८॥ यन्मांसं बीभत्सु भयानकं घृणास्पदम् । यन्मांसं प्राणिघातोद्भवं प्राणिवधोत्पन्नम् । यन्मासं अशुचि अपवित्रम् । यन्मास कृमिस्थानम् । यन्मांसं अश्लाघ्यमूलम् । इह लोके । महता पुरुषाणां हस्तेन स्प्रष्टुं स्पर्शितुं शक्यं न। महतां अक्षणापि आलोकितन। तत् तस्मात्कारणात् । भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं निन्यं भवति। अत्र भुवि पृथिव्याम्। यस्य पुरुषस्य मासं भक्ष्य भवति तस्य मांसभक्षकस्य पुंसः । साक्षात् केवलम् । कियत्पापं भवति तस्य का गतिर्भवति वयं न विद्मः वयं न जानीमः ॥ १९॥ आपत्तियोंका स्थान है, पापका कारण है, तथा दुःखदायक नरकके मार्गोमें अग्रगामी है; इस प्रकार जानकर यहां लोकमें कौन-सा निर्मल बुद्धिका धारक मनुष्य उपर्युक्त जुआको खीकार कस्ता है ? अर्थात् नहीं करता । जो दुर्बुद्धि मनुष्य हैं वे ही इस अनेक आपत्तियोंके उत्पादक जुआको अपनाते हैं, न कि विवेकी मनुष्य ॥१७॥ यदि चित्त महामोहसे जुआमें नहीं रमता है तो फिर अपयश अथवा निन्दा कहांसे हो सकती है? निर्धनता कहां रह सकती है ! विपत्तियां कहांसे आ सकती हैं ? क्रोध एवं लोभ आदि कषायें कहांसे उदित हो सकती हैं। चोरी आदि अन्यान्य व्यसन कहां रह सकते हैं ? तथा मर करके नरकमें उत्पन्न हुए मनुष्योंको दुःख कहांसे प्राप्त हो सकता है ! [अर्थात् जुआसे विरक्त हुए मनुष्यको उपर्युक्त आपत्तियोंमेंसे कोई भी आपत्ति नहीं प्राप्त होती ।] इस प्रकार उन्नत बुद्धिके धारक विद्वान् कहा करते हैं । ठीक ही है, क्योंकि समस्त दुर्व्यसनोंमें यह जुआ गाड़ीके धुराके समान मुख्य माना जाता है ॥ १८ ॥ जो मांस घृणाको उत्पन्न करता है, मृग आदि प्राणियोंके घातसे उत्पन्न होता है, अपवित्र है, कृमि आदि क्षुद्र कीड़ोंका स्थान है, जिसकी उत्पत्ति निन्दनीय है, तथा महापुरुष जिसका हाथसे स्पर्श नहीं करते और आंखसे जिसे देखते भी नहीं हैं 'वह मांस खानेके योग्य है' ऐसा कहना मी सज्जनोंके लिये निन्दाजनक है । फिर ऐसे अपवित्र मांसको जो पुरुष साक्षात् खाता है उसके लिये यहां लोकमें कितना पाप होता है तथा उसकी क्या अवस्था होती है, इस बातको हम नहीं जानते ॥ विशेषार्थ- मांस चूंकि प्रथम तो मृग आदिक मूक प्राणियोंके वधसे उत्पन्न होता है, दूसरे उसमें असंख्य अन्य त्रस जीव भी उत्पन्न हो जाते हैं जिनकी हिंसा होना अनिवार्य है। इस कारण उसके भक्षणमें हिंसाजनित पापका होना अवश्यंभावी १क मालोकितं । २ स रमते ययस्मात् कुतः। ३ अतोऽये यद् यस्मात्पर्यन्तः पाठवुटितो जातः। ४ श भुवि मेदिन्यां पृथिभ्याम् । ५क भालोकितं । पानं.२
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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