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________________ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [15 :१-१५15) यत्प्रोक्तं प्रतिमामिराभिरभितो विस्तारिभिः सूरिभिः ज्ञातव्यं तदुपासकाध्ययनतो गेहिवतं विस्तरात् । तत्रापि व्यसनोज्झनं यदि तदप्यासून्यते ऽत्रैव यत् । तन्मूलः सकलः सतां व्रतविधिर्याति प्रतिष्ठां पराम् ॥ १५॥ 16) धूतमांससुरावेश्याखेटचौर्यपराङ्गनाः । महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद्बुधः ॥१६॥ 17) भवनमिदमकीर्तेश्चौर्यवेश्यादिसर्वव्यसनपतिरशेषापन्निधिः पापबीजम् । विषमनरकमार्गेष्वग्रयायीति मत्वा क इह विशदबुद्धि तमङ्गीकरोति ॥ १७ ॥ त्यागः स्मृतः कथितः ॥१४॥ यद्गहिवतम्। सूरिभिः अभितः समन्तात्। आभिः प्रतिमाभिः विस्तारिभिः प्रोक्तम् । तद्देहिव्रतम् उपासकाध्ययनतः सप्तमाहात्। विस्तरात् ज्ञातव्यम्। तत्रापि उपासकाध्ययने । यदि आदी व्यसनोज्झनं मतं कथितम् तव्यसनोज्झनम् । अत्रैव पद्मनन्दिग्रन्थे। आसूयते कथ्यते। यद्यतः। तद्व्यसनोज्झनं सतां व्रतविधेः मूलः स व्रतविधिः परां प्रतिष्ठां याति गच्छति ॥ १५॥ इति हेतोः । बुधः। सप्त व्यसनानि त्यजेत् । इतीति किम् । यतः महापापानि महापापयुक्तानि। तान्येव दर्शयति। यतं मांसं सुरा वेश्या आखेटः चौर्य पराङ्गना इति ॥ १६ ॥ इह लोके संस मत्वा । कः विशबुद्धिः निर्मलबुद्धिः द्यूतम् अङ्गीकरोति । इतीति किम् । इदं द्यूतम् । अकीर्तेः अपयशसः । भवनं गृहम् । पुनः किंलक्षणं द्यूतम् । चौर्यवेश्यादिसर्वव्यसनपतिः । पुनः किंलक्षणं द्यूतम् । अशेषापन्निधिः समस्तापदां स्थानम् । पुनः किंलक्षणम् । पापबीजम् । पुनः किंलक्षणम् इदं द्यूतम् । विषमनरकमार्गेषु अग्रयायी अग्रेसरः । इति पूर्वोक्तम् । मत्वा । कः द्यूतम् अङ्गीकरोति करके दिनमें ही भोजन करनेका नियम करना, यह दिवाभुक्तिप्रतिमा कही जाती है। किन्हीं आचार्योंके अभिप्रायानुसार दिनमें मथुनके परित्यागको दिवाभुक्ति (षष्ठ प्रतिमा ) कहा जाता है। (७) शरीरके स्वभावका विचार करके कामभोगसे विरत होनेका नाम ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। (८) कृषि एवं वाणिज्य आदि आरम्भके परित्यागको आरम्भत्यागप्रतिमा कहते हैं। (९) धन-धान्यादिरूप दस प्रकारके बाह्य परिग्रहमें ममत्वबुद्धिको छोड़कर सन्तोषका अनुभव करना, इसे परिग्रहत्यागप्रतिमा कहा जाता है । (१०) आरम्भ, परिग्रह एवं इस लोक सम्बन्धी अन्य कार्योंके विषयमें सम्मति न देनेका नाम अनुमतित्याग ह । (११) गृहवासको छोड़कर भिक्षावृत्तिसे भोजन करते हुए उद्दिष्ट भोजनका त्याग करनेको उद्दिष्टत्याग कहा जाता है । इन प्रतिमाओंमें पूर्वकी प्रतिमाओंका निर्वाह होनेपर ही आगेकी प्रतिमामें परिपूर्णता होती है, अन्यथा नहीं ॥१४॥ इन प्रतिमाओंके द्वारा जिस गृहस्थव्रत (विकलचारित्र) को यहां आचार्योंने विस्तारपूर्वक कहा है उसको यदि अधिक विस्तारसे जानना ह तो उपासकाध्ययन अंगसे जानना चहिये। वहांपर भी जो व्यसनका परित्याग बतलाया गया है उसका निर्देश यहांपर भी कर दिया गया है । कारण इसका यह है कि साधु पुरुषोंके समस्त व्रतविधानादिकी उत्कृष्ट प्रतिष्ठा व्यसनोंके परित्यागपर ही निर्भर है ॥ १५॥ जुआ, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री; इस प्रकार ये सात महापापरूप व्यसन हैं । बुद्धिमान् पुरुषको इन सबका त्याग करना चाहिये ॥ विशेषार्थ-व्यसन बुरी आदतको कहा जाता है । ऐसे व्यसन सात हैं१ जुआ खेलना २ मांस भक्षण करना ३ शराब पीना ४ वेश्यासे सम्बन्ध रखना ५ शिकार खेलना (मृग आदि पशुओंके घातमें आनन्द मानना) ६ चोरी करना और ७ अन्यकी स्त्रीसे अनुराग करना । ये सातों व्यसन चूंकि महापापको उत्पन्न करनेवाले हैं, अत एव विवेकी जनको इनका परित्याग अवश्य करना चाहिये ॥१६॥ यह जुआ निन्दाका स्थान है, चोरी एवं वेश्या आदि अन्य सब व्यसनोंमें मुख्य है, समस्त १श इति । २ श प्रोक्तः सद्गहिव्रतम् । ३ शव्यसनोज्झनं फलं कथितं । ४ अकथ्यते यतः तत् व्यसनोज्झनम्, श कथ्यते यत ततः व्यसनोज्झनम्।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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