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________________ [7:१-७ पअनन्दि-पञ्चविंशतिः 7) धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्मेदाद्विधा च त्रयं रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः । मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता वागङ्गसंगोज्झिता शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते ॥ ७॥ 8) आद्या सद्वतसंचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपदां मूलं धर्मतरोरनश्वरपदारोहैकनिःश्रेणिका । कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिकैः धिनामाप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः॥८॥ धर्मः । उच्चैः अतिशयेन जनितपरमशर्मा जनितम् उत्पादितं परमशर्म सुखं येनासौ जनितपरमशर्मा। एवंविधो जिनदेवो जयति ॥६॥ जीवदया धर्मः । गृहस्थशमिनोः द्वयोःभेदाद् द्विधा धर्मः कथ्यते। च । रत्नानां त्रयं त्रिविधं धर्मः दर्शनज्ञानचारित्राणि धर्मः । तथा दशविधो धर्मः उत्कृष्टक्षमादिः उत्तमक्षमादिः । ततः पश्चात् । आत्मनः परिणतिः । धर्माख्यया धर्मनाम्ना कृत्वा आत्मनः परिणतिः। गीयते कथ्यते । किंलक्षणा परिणतिः । मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता मोहोद्भूतविकल्पजालेन रहिता । पुनः किंलक्षणा । वागङ्गसंगोज्झिता वचनकायसंगरहिता । पुनः किंलक्षणा । शुद्धानन्दमयामियी] ॥ ७ ॥ इह लोके । सद्भिः पण्डितैः भव्यैः । प्रथमतः । अनिषु जीवेषु । दया कार्या । नित्यं सदैव । धार्मिकैः कार्या। किंलक्षणा दया। सद्वतसंचयस्य आद्या जननी माता । सौख्यस्य जननी माता। पुनः किंलक्षणा दया । सत्संपदा मूलम् । पुनः धर्मतरोः धर्मवृक्षस्य मूलम् । पुनः किंलक्षणा दया । अनश्वरपदारोहकनिःश्रेणिका अनश्वरपदस्य मोक्षपदस्यारोहैकनिःश्रेणिका । तस्य अदयस्य नामापि धिक् । च लोकका अधिपति जिन देव जयवन्त होवे ॥६॥ प्राणियोंके ऊपर दयाभाव रखना, यह धर्मका स्वरूप है । वह धर्म गृहस्थ (श्रावक) और मुनिके भेदसे दो प्रकारका है। वही धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप उत्कृष्ट रत्नत्रयके भेदसे तीन प्रकारका तथा उत्तम क्षमा एवं उत्तम मार्दव आदिके भेदसे दस प्रकारका भी है । परन्तु निश्चयसे तो मोहके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले मानसिक विकल्पसमूहसे तथा वचन एवं शरीरके संसर्गसे भी रहित जो शुद्ध आनन्दरूप आत्माकी परिणति होती है उसे ही 'धर्म' इस नामसे कहा जाता है। विशेषार्थ-प्राणियोंके ऊपर दयाभाव रखना, रत्नत्रयका धारण करना, तथा उत्तमक्षमादि दस धर्मोका परिपालन करना; यह सब व्यवहार धर्मका स्वरूप है। निश्चय धर्म तो शुद्ध आनन्दमय आत्माकी परिणतिको ही कहा जाता है ॥ ७ ॥ यहां धर्मात्मा सज्जनोंको सबसे पहिले प्राणियोंके विषयमें नित्य ही दया करनी चाहिये, क्योंकि वह दया समीचीन व्रतसमूह, सुख एवं उत्कृष्ट सम्पदाओंकी मुख्य जननी अर्थात् उत्पादक है; धर्मरूपी वृक्षकी जड़ है, तथा अविनश्वर पद अर्थात् मोक्षमहलपर चढनेके लिये अपूर्व नसैनीका काम करती है । निर्दय पुरुषका नाम लेना भी निन्दाजनक है, उसके लिये सर्वत्र दिशायें शून्य जैसी हैं । विशेषार्थ-जिस प्रकार जड़के विना वृक्षकी स्थिति नहीं रहती है उसी प्रकार प्राणिदयाके विना धर्मकी स्थिति भी नहीं रह सकती। अत एव वह धर्मरूपी वृक्षकी जड़के समान है। इसके अतिरिक्त प्राणिदयाके होनेपर ही चूंकि उत्तम व्रत, सुख एवं समीचीन संपदायें तथा अन्तमें मोक्ष भी प्राप्त होता है; अत एव धर्मात्मा जनोंका यह प्रथम कर्तव्य है कि वे समस्त प्राणधारियोंमें दयाभाव रक्खें । जो प्राणी निर्दयतासे जीवघातमें प्रवृत्त होते हैं उनका नाम लेना भी बुरा समझा जाता है। उनके लिये कहीं भी सुखसामग्री प्राप्त होनेवाली नहीं है । इसीलिये सत्पुरुषोंके लिये यह प्रथम उपदेश है वे समस्त प्राणियोंमें १ अश परिणतिः कथ्यते। २श सत्संपदा मूला अथवा धर्मतरोः मूला पुनः।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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