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________________ w -6 : १.६] १. धर्मोपदेशामृतम् श्रीसमावियुगं जिनस्य दधदप्यम्भोजसाम्यं रज स्त्यक्तं जाड्यहरं परं भवतु नश्चेतो ऽर्पितं शर्मणे ॥ ४॥ 5) जयति जगदधीशः शान्तिनाथो यदीयं स्मृतमपि हि जनानां पापतापोपशान्त्यै । विबुधकुलकिरीटप्रस्फुरनीलरत्नद्युतिचलमधुपालीचुम्बितं पादपद्मम् ॥ ५॥ 6) स जयति जिनदेवः सर्वविद्विश्वनाथो वितथवचनहेतुक्रोधलोभादिमुक्तः। शिवपुरपथपान्थप्राणिपाथेयमुच्चैर्जनितपरमशर्मा येन धर्मो ऽभ्यधायि ॥६॥ नमस्कार कुर्वतः इन्द्रस्य शेखरशिखारत्नार्कभासा कृत्वा पाटलम् इन्द्रस्य शेखरः मुकुटः तस्य मुकुटस्य शिखारत्नं स एव अर्कः सूर्यः तस्य शेखरशिखारत्नार्कस्य भा दीप्तिः तया शेखरशिखारत्नार्कभासा कृत्वा पाटलम् । 'श्वेतरक्तस्तु पाटलम्' इत्यमरः । पुक किलक्षणम् । नखश्रेणीतेक्षणबिम्बशुम्भदलिभृत्, नखाना श्रेण्यः नखश्रेण्यः पतयः तासु नखश्रेणीषु इतानि प्राप्तानि यानि इन्द्रस्य ईक्षणबिम्बानि तान्येव शुम्भन्तः अलयः मृशाः तान् अलीन् बिभर्ति इति भृत् नखश्रेणीतेक्षणबिम्बशुम्भदलिभृत् । पुनः किंलक्षणम् अङ्गियुगम् । दूरोल्लसत् दूरम् अतिशयेन उल्लसत् प्रकाशमानम् । एवंभूतम् अङ्गियुगं भवतां सुखाय भवतु ॥ ४ ॥ स श्रीशान्तिनाथः जयति। किंलक्षणः श्रीशान्तिनाथः । जगंदधीशः जगतः अधीशः जगदधीशः। हि निश्चितम् । यदीय पादपद्म स्मृतममपि । जनानां लोकानाम् । पापतापोपशान्यै भवति पापतापस्यै उपशान्तिः तस्यै पापतापोपशान्यै भवति। किंलक्षण पादपद्मम् । विबुधकुलकिरीटप्रस्फुरनीलरत्नातिचलमधुपालीचुम्बितं विबुधकुलानां देवसमूहानां किरीटे मुकुटे प्रस्फुरती' या नीलरत्नद्युतिः सैव चञ्चला मधुपाना मृङ्गाणा आली पतिः तया चुम्बितं स्पर्शितं पादपद्मम् ॥ ५॥ स जिनदेवो जयति । किंलक्षणो जिनदेवः। सर्ववित् सर्व वेत्तीति सर्ववित् । पुनः किंलक्षणः। विश्वनाथः त्रैलोक्यप्रभुः । पुनः किंलक्षणः । वितथवचनहेतुकोधलोभादिमुक्तः असत्यवचनहेतुः क्रोधलोभादिः तेन मुक्तः रहितः । येन जिनदेवेन धर्मः अभ्यधायि अयि । किंलक्षणो धर्मः । शिवपुरपथपान्यप्राणिपाथेयं मोक्षनगरमार्गपथिकजीवानां पाथेयं सम्बलम् । पुनः किंलक्षणो धारण करते हुए भी धूलिके सम्पर्कसे रहित होकर जड़ता (अज्ञान) को हरनेवाले हैं; वे उभय चरण हमारे चित्तमें स्थित होकर सुखके कारणीभूत होवें ॥ विशेषार्थ- यहां जिन भगवान्के चरणोंको कमलकी उपमा देते हुए यह बतलाया है कि जिस प्रकार कमल पाटल (किंचित् सफेदीके साथ लाल) वर्ण होता है उसी प्रकार जिन भगवान्के चरणोंमें जब इन्द्र नमस्कार करता था तब उसके मुकुटमें जड़े हुए रत्नकी छाया उनपर पड़ती थी, इसलिये वे भी कमलके समान पाटल वर्ण हो जाते थे । यदि कमलपर अमर रहते हैं तो जिन भगवान्के पादनखोंमें भी नमस्कार करते हुए इन्द्रके नेत्रप्रतिबिम्बरूप भ्रमर विद्यमान थे । कमल यदि श्री(लक्ष्मी)का स्थान माना जाता है तो वे जिनचरण भी श्री(शोभा)के स्थान थे। इस प्रकार कमलकी उपमाको धारण करते हुए भी जिनचरणोंमें उससे कुछ और भी विशेषता थी। यथा- कमल तो रज अर्थात् परागसे सहित होता है, किन्तु जिनचरण उस रज(धूलि) के सम्पर्कसे सर्वथा रहित थे। इसी प्रकार कमल जड़ता (अचेतनता) को धारण करता है, परन्तु जिनचरण उस जड़ता ( अज्ञानता ) को नष्ट करनेवाले थे ॥ ४ ॥ देवसमूहके मुकुटोंमें प्रकाशमान नील रत्नोंकी कान्तिरूपी चंचल भ्रमरोंकी पंक्तिसे स्पर्शित जिन शान्तिनाथ जिनेन्द्रके चरण-कमल स्मरण करने मात्रसे ही लोगोंके पापरूप संतापको दूर करते हैं वह लोकके अधिनायक भगवान् शान्तिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें ॥ ५ ॥ जो जिन भगवान् असत्य भाषणके कारणीभूत क्रोध एवं लोभ आदिसे रहित है तथा जिसने मुक्तिपुरीके मार्गमें चलते हुए पथिक जनोंके लिये पाथेय ( कलेवा ) स्वरूप एवं उत्तम सुखको उत्पन्न करनेवाले ऐसे धर्मका उपदेश दिया है वह समस्त पदार्थोंको आननेवाला तीन १कशान्त्यै पापतापस्य । २क प्रस्फुरन्ती। ३. किंलक्षणो देवः ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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