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________________ ६२ १६ गुरु पादप्रसादसे निर्ग्रन्थताको प्राप्त कर लेनेपर इन्द्रियसुख दुखरूप ही प्रतीत होता है। निर्मन्थताजन्य आनन्दके सामने इन्द्रियसुखका स्मरण भी नहीं होता है मोहके निमित्त से होनेवाली मोक्षकी भी अभिलाषा सिद्धिमें बाधक होती है चिद्रूपके चिन्तनमें और तो क्या, शरीरसे भी प्रीति नहीं रहती शुद्ध नपसे तस्व अनिर्वचनीय है पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः २४. शरीराष्टक शरीरके स्वभावका निरूपण श्लोक २५. खानाष्टक मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण शरीर सदा अशुचि और आत्मा स्वभावसे पवित्र है, अत एव दोनों प्रकार से ही स्नान व्यर्थ है पुरुषका स्नान बिवेक है जो मिथ्यात्वादिरूप अभ्यन्तर मलको नष्ट करता है। समीचीन परमात्मारूप तीर्थमें जान करना ही श्रेष्ठ है १७ १८ १९ २० १-८, पृ. २६४ २६. ब्रह्मचर्याष्टक मैथुन संसारवृद्धिका कारण है २ १-८ १ - ८, पृ. २६० मैथुनकर्ममें पशुओंके रत रहनेसे उसे पशुकर्म कहा जाता है यदि मैथुन अपनी स्त्रीके भी साथ अच्छा होता तो उसका पर्वोंमें त्याग क्यों कराया जाता ३ अपवित्र मैथुनसुखमें विवेकी जीवको अनुराग नहीं होता १-२ ३ 2 ५ जिन्होंने ज्ञानरूप समुद्रको नहीं देखा है वे ही गंगा आदि तीर्थमासों में खान करते हैं। मनुष्यशरीरको शुद्ध कर सकनेवाला कोई भी तीर्थ सम्भव नहीं है। लोक कर्पूरादिका लेपन करनेपर भी शरीर स्वभावतः दुर्गन्धको ही छोड़ता है ७ भग्य जीव इस स्नानाष्टकको सुनकर सुखी होवें ८ १–९, पृ. २६८ अपवित्र मैथुनमें अनुरागका कारण मोह है मैथुन संयमका विघातक है मैथुनमें प्रवृत्ति पापके कारण होती है। विषयसुख विषके सदृश हैं इस ब्रह्मचर्याष्टकका निरूपण मुमुक्षु जनोंके लिये किया गया है। १ ४ ५ ९
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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