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________________ विषय-सूची लोक ८. १ . २१. क्रियाकाण्डचूलिका १-१८, पृ. २४५/ अस्थिर स्वर्गसुख मोहोदयरूप विषसे व्याप्त है . दोषोंने जिनेन्द्र में स्थान न पाकर मानो गर्वसे ही इस लोकमें जो भास्मोन्मुख रहता है वह परलोकमें भी वैसा रहता है उन्हें छोड दिया है वीतरागपथमें प्रवृत्त योगी के लिये मोक्षसुखकी स्तुति करनेकी असमर्थताको प्रगट करके भक्तिकी प्राप्तिमें कोई भी बाधक नहीं हो सकता . प्रमुखता व उसका फल इस भावनापदके चिन्तनसे मोक्ष प्राप्त होता है . रत्नत्रयकी याचना मापके चरण-कमलको पाकर मैं कृतार्थ हो गया ९ धर्मके रहनेपर मृत्युका भी भय नहीं रहता ॥ अभिमान या प्रमादके वश होकर जो रत्नत्रय मादिके विषयमें अपराध हुभा है वह २३. परमार्थविंशति १-२०, पृ. २५२ मिथ्या हो मात्माका अद्वैत जयवंत हो मन, वचन, काय और कृत, कारित, मनुमोदनसे मनन्तचतुष्टवस्वरूप स्वस्थताकी वन्दना २ जो प्राणिपीड़न हुमा है वह मिथ्या हो " एकत्वकी स्थितिके लिये होनेवाली बुदि भी मन, वचन, व कायके द्वारा उपाजित मेरा कर्म मानन्दजनक होती है। आपके पादमरणसे नाशको प्राप्त हो १२ अद्वैतकी भोर झुकाव होनेपर इष्टानिष्टादि सर्वज्ञका वचन प्रमाण है नष्ट हो जाती है मन, वचन व कायकी विकलतासे जो स्तुतिमें मैं चेतनस्वरूप है, कर्मजनित क्रोधादि भित्र है ५ न्यूनता हुई है उसे हे वाणी! द क्षमा कर १४ यदि एकत्वमें मन संलग्न है तो तीन सपके न यह ममीष्ट फलको देनेवाला क्रियाकाण्डरूप होनेपर भी अभीष्टसिदि होती है कल्पवृक्षका एक पत्र है कोंके साथ एकमेक होनेपर भी मैं उस क्रियाकाण्ड सम्बन्धी इस चूलिकाके पढ़नेसे परज्योतिस्वरूप ही हूं अपूर्ण क्रिया पूर्ण होती है लक्ष्मीके मदसे उन्मत्त राजाभोंकी संगति मृत्युसे । जिन भगवानकी शरणमें जानेसे संसार नष्ट भी भयानक होती है होता है हृदयमें गुरुवचनोंके जागृत रहनेपर मापत्तिमें मैंने भापके आगे यह वाचालता केवल खेद नहीं होता भक्तिवश की है गुरुके द्वारा प्रकाशित पथपर चलनेसे निर्वाणपुर प्राप्त होता है २२. एकत्वदशक १-११, पृ. २५१/ कर्मको मारमासे पृथक् समझनेवालोंको सुख-दुखका विकल्प ही नहीं होता परमज्योतिके कथनकी प्रतिज्ञा | देव व जिनप्रतिमा मादिका भाराधन जो भारमतत्वको जानता है वह दूसरोंका स्वयं म्यवहारमार्गमें ही होता है ___ आराध्य बन जाता है। यदि मुक्तिकी ओर बुद्धि लग गई है तो फिर एकत्वका ज्ञाता बहुत मी कर्मोंसे नहीं डरता है । कोई कितना भी कष्ट दे, उसका भय चैतन्यकी एकताका ज्ञान दुर्लभ है, पर मुक्तिका नहीं रहता दाता वही है सर्वशक्तिमान् मात्मा प्रभु संसारको नष्टके जो यथार्थ सुख मोक्षमें है वह संसारमें समान देखता है असम्भव है आत्माकी एकताको जाननेवाला पापसे लिप्त गुरुके उपदेशसे हमें मोक्षपद ही प्रिय है ६ । नहीं होता
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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