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________________ -694 : १३-१३] १३. ऋषभस्तोत्रम् 691 ) तित्थत्तणमावण्णो मेरू तुह जम्मण्हाणजलजोए । तं तस्से सूरपमुही पयाहिणं जिण कुणंति सया ॥ १० ॥ 692) मेरुसिरे पडणुच्छ लियणीरताडणपणट्ठदेवाणं । तं वित्तं तुह पहाणं तह जह णहमासि संकिणं ॥ ११ ॥ 693) णाह तुह जम्मण्हाणे हरिणो मेरुम्मि णश्यमाणस्स । agrat भग्गा तर अज्ज वि भंगुरा मेहा ॥ १२ ॥ 694 ) जाण बहुएहिं वित्ती जाया कप्पहुमेहिं तेहिं विणा । एक्केण वि ताण तर पयाण परिकप्पिया णाह ॥ १३ ॥ २०३ इन्द्रेण । सुरालयं मन्दिरं [ सुराचलं ] गच्छता ॥ ॥ भो जिन । तव जन्मस्नानजलयोगेन मेहस्तीर्थत्वम् आपन्नः प्राप्तः । तत् तस्मात् कारणात् । सूर-सूर्यप्रमुखाः देवाः सदाकाले तस्य मेरोः प्रदक्षिणां कुर्वन्ति ॥ १० ॥ मेरुशिरसि मस्तके तव तत् जन्मस्नानं तथा वृत्तं जातं यथा पतनोच्छलननीरताडनवशात् प्रणष्टदेवानां नभः कीर्णम् आश्रितं व्याप्तं जातम् ॥ ११ ॥ भो नाथ । तव जन्मनाने मेरी हरेः इन्द्रस्य नृत्यमानस्य स्फालितभुजाभिः तदा भग्नाः मेघाः अद्यापि भङ्गुराः खण्डिता दृश्यन्ते ॥ १२ ॥ भो नाथ । यासां प्रजानां बहुभिः कल्पद्रुमैः वृत्तिर्जाता उदरपूर्ण जातम् । तैर्विना कल्पद्रुमैः विना । तासां प्रजानाम् । एकेनापि हे जिन ! उस समय चूंकि मेरु पर्वत आपके जन्माभिषेकके जलके सम्बन्धसे तीर्थस्वरूपको प्राप्त हो चुका था, इसीलिये ही मानो सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिषी देव निरन्तर उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं ॥ १० ॥ जन्माभिषेकके समय मेरु पर्वतके शिखरपर नीचे गिरकर ऊपर उच्छलते हुए जलके अभिघातसे. कुछ खेदको प्राप्त हुए देवोंके द्वारा आपका वह जन्माभिषेक इस प्रकार से सम्पन्न हुआ कि जिससे आकाश उन देवों और जलसे व्याप्त हो गया ॥ ११ ॥ हे नाथ ! आपके जन्माभिषेकमहोत्सवमें मेरुके ऊपर नृत्य करनेवाले इन्द्रकी कम्पित ( चंचल ) भुजाओंसे नाशको प्राप्त हुए मेघ इस समय भी भंगुर ( विनश्वर ) देखे जाते हैं ॥ १२ ॥ हे नाथ ! भोगभूमिके समय जिन प्रजाजनोंकी आजीविका बहुत-से कल्पवृक्षों द्वारा सम्पन्न हुई थी उनकी वह आजीविका उन कल्पवृक्षों के अभाव में एक मात्र आपके द्वारा सम्पन्न ( प्रदर्शित ) की गई थी ॥ विशेषार्थ - पूर्वमें यहां ( भरतक्षेत्र में ) जब भोगभूमि की प्रवृत्ति थी तब प्रजाजनकी आजीविका बहुत-से ( दस प्रकारके ) कल्पवृक्षोंके द्वारा सम्पन्न होती थी । परन्तु जब तीसरे कालका अन्त होनेमें पल्यका आठवां भाग शेष रहा था तब वे कल्पवृक्ष धीरे धीरे नष्ट हो गये थे । उस समय भगव आदि जिनेन्द्र ने उन्हें कर्मभूमिके योग्य असि-मसि आदि आजीविकाके साधनोंकी शिक्षा दी थी । जैसा कि स्वामी समन्तभद्राचार्यने कहा भी है- प्रजापतिर्या प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः || अभिप्राय यह है कि जिन ऋषभ जिनेन्द्रने पहिले कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर आजीविकाके निमित्त व्याकुलताको प्राप्त हुई प्रजाको प्रजापति के रूपमें कृषि आदि छह कर्मोंकी शिक्षा दी थी वे ही ऋषभ जिनेन्द्र फिर वस्तुस्वरूपको जानकर संसार, शरीर एवं भोगोंसे विरक्त होते हुए आश्चर्यजनक अभ्युदयको प्राप्त हुए और समस्त विद्वानोंमें अग्रेसर हो गये | बृ. स्व. स्तो. २. इस प्रकारसे जो प्रजाजन भोगभूमिके कालमें अनेक कल्पवृक्षोंसे आजीविकाको सम्पन्न करते थे उन्होंने कर्मभूमिके प्रारम्भमें एक मात्र उक्त ऋषभ जिनेन्द्रसे ही उस आजीविकाको सम्पन्न किया थावे ऋषभ जिनेन्द्रसे असि, मसि व कृषि आदि कर्मोंकी शिक्षा पाकर आनन्दपूर्वक आजीविका करने लगे 1 १ क श तत्तस्स । २ क सुरपमुहा । १३ ब प्रतिपाठोऽयम् । भ श मासियं किन्नं, क मासियं किण्णं च मासियं किणं । ४ अ श भुवाहि । ५ क सुरसूर्यप्रमुखाः ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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