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________________ २०२ पअनन्दि-पञ्चविंशतिः [687 : १३-६687 ) जासि सिरी तह संते तुव अवइण्णम्मि तीएं णट्टाएँ। संके जणियाणिट्टा दिट्ठा सव्वट्ठसिद्धी वि ॥ ६ ॥ 688 ) णाहिघरे घसुहारावडणं जं सुइरमिहं' तुहोयरणा । आसि णहाहि जिणेसर तेण धरा वसुमई जाया ॥७॥ 689 ) स चिय सुरणवियपया मरुएवी पहु ठिओ सि जंगम्मे । पुरओ पट्टो यज्झइ मज्झे से पुत्तवंतीणं ॥ ८॥ 690) अंकत्थे तह दिटे जंतेण सुरॉयलं सुरिंदेण । अणिमेसत्तबहुत्तं सयलं णयणाण पडिवणं ॥९॥ वाञ्छिता लक्ष्मीः । मम पुरतः अग्रे । आदेशं प्रार्थयन्ती संचरति प्रवर्तते ॥ ५॥ शङ्के अहम् । एवं मन्ये । भो श्रीसर्वज्ञ । या श्री: लक्ष्मीः तथा श्रीः शोभा। त्वयि सति सर्वार्थसिद्धौ। भासि पूर्वम् आसीत् । त्वयि अवतीर्णे सति तस्याः लक्ष्म्याः नष्टा शोभा सर्वार्थसिद्धौ अपि न दृष्टा । जनितानिष्टा ॥६॥ भो जिनेश्वर । तव अवतरणात् । नाभिगृहे [ इह ] पृथिव्याम् । नभसः आकाशात् । यद्यस्मात् । सुचिर चिरकालम् । वसुधारापतनम् आसीत् तेन हेतुना मा पृथ्वी वसुमती जाता द्रव्यवतीत्वम् उपगता ॥७॥ भो प्रभो । मरुदेवी सेंची सुर-देव-इन्द्राणी च पुनः [ स चिय सा एव ] देवैः नमितपदा जाता । सत्यं यस्याः महदेव्याः गर्भ त्वं स्थितोऽसि तस्याः मरुदेव्याः मस्तके पुत्रवतीनां मध्ये अप्रतः पट्टः बध्यते । पुत्रवती मरुदेवी प्रधाना तत्सदशा अन्या न ॥ ८ ॥ भो जिनेश । अङ्कस्थे त्वयि दृष्टे सति सुरेन्द्रेण । नेत्राणाम् अनिमेषनानात्वं सफलं प्रतिपन्नं सफलं ज्ञातम् । किंलक्षणेन हुई उपस्थित होती है ॥५॥ हे भगवन् ! आपके सर्वार्थसिद्धिमें स्थित रहनेपर जो उस समय उसकी शोभा थी वह आपके यहां अवतार लेनेपर नष्ट हो गई । इससे मुझे ऐसी आशंका होती है कि इसीलिये उस समय सर्वार्थसिद्धि भी ऐसी देखी गई मानों उनका अनिष्ट ही हो गया है ॥ विशेषार्थ-जिस समय भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रका जीव सर्वार्थसिद्धिमें विद्यमान था उस समय भावी तीर्थकरके वहां रहनेसे उसकी शोभा निराली ही थी। फिर जब वह वहांसे च्युत होकर माता मरुदेवीके गर्भ में अवतीर्ण हुआ तब सर्वार्थसिद्धिकी वह शोभा नष्ट हो गई थी । इसपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रके च्युत होनेपर वह सर्वार्थसिद्धि मानो विधवा ही हो गई थी, इसीलिये वह उस समय सौभाग्यश्रीसे रहित देखी गई ॥ ६ ॥ हे जिनेश्वर ! आपके अवतार लेनेसे नाभि राजाके घरपर आकाशसे जो चिर काल (पन्द्रह मास ) तक धनकी धाराका पतन हुआ- रत्नोंकी वर्षा हुई-उससे यह पृथिवी 'वसुमती (धनवाली)' इस सार्थक नामसे युक्त हुई ॥ ७ ॥ हे भगवन् ! जिस मरुदेवीके गर्भमें तुम जैसा प्रभु स्थित था उसीके चरणोंमें उस समय देवोंने नमस्कार किया था। तब पुत्रवती स्त्रियोंके मध्यमें उनके समक्ष उसके लिये पट्ट बांधा गया था, अर्थात् समस्त पुत्रवती स्त्रियोंके बीचमें तीर्थंकर जैसे पुत्ररत्नको जन्म देनेवाली एक वही मरुदेवी पुत्रवती प्रसिद्ध की गई थी ॥ ८ ॥ हे जिनेन्द्र ! सुमेरुपर जाते हुए इन्द्रको गोदमें स्थित आपका दर्शन होनेपर उसने अपने नेत्रोंकी निर्निमेषता ( झपकनका अभाव ) और अधिकता ( सहस्र संख्या) को सफल समझा ॥ विशेषार्थ- यह आंगमप्रसिद्ध बात है कि देवोंके नेत्र निर्निमेष ( पलकोंकी झपकनसे रहित ) होते हैं । तदनुसार इन्द्रके नेत्र निर्निमेष तो थे ही, साथमें वे संख्यामें भी एक हजार थे । इन्द्रने जब इन नेत्रोंसे प्रभुका दर्शन किया तब उसने उनको सफल समझा । यह सुयोग अन्य मनुष्य आदिको प्राप्त नहीं होता है । कारण कि उनके दो ही नेत्र होते हैं और वे भी सनिमेष । इसलिये वे जब त्रिलोकीनाथका दर्शन करते हैं तब उन्हें बीच बीचमें पलकोंके झपकनेसे व्यवधान भी होता है। वे उन देवोंके समान बहुत समय तक टकटकी लगाकर भगवान्का दर्शन नहीं कर पाते हैं ॥९॥ १कश यासि । २ म अवयणमि तीये, क अवयणमित्तिये, शअवयणमित्तीये। ३ भक श णट्ठाये। ४ कश सिद्धावि। ५ क मुइरमइ, च सुश्रमिहिं, श सुइरमहि । ६ क श अरणी। ७ च प्रतिपाठोऽयम्, भकश सुरालयं । ८ क आसीत् पूर्वे आसीत् । ९श नष्टा या शोमा । १०श शची।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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