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________________ १७७ -587 : १०-४०] १०. सद्बोधचन्द्रोदयः 583 ) तावदेव मतिवाहिनी सदा धावति श्रुतगता पुरः पुरः। __यावदत्र परमात्मसंविदा भिद्यते न हृदयं मनीषिणः ॥ ३६ ॥ 584) यः कषायपवनैरचुम्बितो बोधवह्निरमलोल्लसद्दशः। किं न मोहतिमिरं विखण्डयन भासते जगति चित्प्रदीपकः ॥ ३७॥ 585) बाह्यशास्त्रगहने विहारिणी या मतिर्बहुविकल्पधारिणी। चित्स्वरूपकुलसननिर्गता सा सती न सदृशी कुयोषिता ॥ ३८॥ 586) यस्तु हेयमितरञ्च भावयन्नाद्यतो हि परमाप्तुमीहते। तस्य बुद्धिरुपदेशतो गुरोराश्रयेत्स्वपदमेव निश्चलम् ॥ ३९ ॥ 587) सुप्त एष बहुमोहनिद्रया लडितः स्वमबलादि पश्यति। जाग्रतोचवचसा गुरोर्गतं संगतं सकलमेव दृश्यते ॥४०॥ अत्र लोके। मनीषिणः मतिवाहिनी पण्डितस्य बुद्धिनदी। तावदेव तावत्कालम् । श्रुतगता सिद्धान्ते प्राप्ता। पुरः पुरः अग्रे अग्रे। सदा धावति । यावत्कालम् । परमात्मसंविदा परमात्मज्ञानेन । हृदयं न मिद्यते ॥ ३६॥ चित्प्रदीपकः मोहतिमिरे विखण्डयन्' जगति विषये किं न भासते। अपि तु भासते । यः चैतन्यदीपकः कषायपवनैः अचुम्बितः । किलक्षणः चैतन्यदीपकः । बोधवाहिः । अमल-निर्मल-उल्लसद्दशः अचलयोगवर्ति'॥३७॥या मतिः बाह्यशास्त्रगहने बने । विहारिणी स्वेच्छाचरणशीला। किंलक्षणा मतिः। बहुविकल्पधारिणी। पुनः चित्खरूपकुलसद्मनिर्गता। सा मतिः सती साध्वीन । कुयोषिता सदृशी सा मतिः॥३०॥ यः भव्यः। हेयं त्याज्यम् । तु पुनः। इतरत् अहेयम् उपादेयम् । द्वयम् । भावयन् विचारयन् । आद्यतः हेयात् । परम् उपादेयम् । आप्तुं प्राप्तुम् । ईहते वाञ्छति । तस्य बुद्धिः गुरोः उपदेशतैः । निश्चलं खपदम् आश्रयेत् ॥ ३९ ॥ एष जीवः सुप्तः बहुमोहनिद्रया लचितः। अबलादि खं पश्यति कलत्रादि आत्मीयं पश्यति । गुरोः उच्चवचसा उच्चवचनेन । जाग्रता अथवा मिथ्याज्ञानरूपी अमिके द्वारा नष्ट नहीं किया जाता है तो वह निश्चयसे अभीष्ट मोक्षरूपी उत्तम फलको उत्पन्न करता है ॥ ३५ ॥ यहां विद्वान् साधुकी बुद्धिरूपी नदी आगममें स्थित होकर निरन्तर तब तक ही आगे आगे दौड़ती है जब तक कि उसका हृदय उत्कृष्ट आत्मतत्त्वके ज्ञानसे भेदा नहीं जाता ॥ विशेषार्थ- इसका अभिप्राय यह है कि विद्वान् साधुके लिये जब उत्कृष्ट आत्माका स्वरूप समझमें आ जाता है तब उसे श्रुतके परिशीलनकी विशेष आवश्यकता नहीं रहती । कारण यह कि आत्मतत्त्वका परिज्ञान प्राप्त करना यही तो आगमके अभ्यासका फल है, सो वह उसे प्राप्त हो ही चुका है । अब उसके लिये मोक्षपद कुछ दूर नहीं है ॥ ३६ ॥ जो चैतन्यरूपी दीपक कषायरूपी वायुसे नहीं छुआ गया है, ज्ञानरूपी अमिसे सहित है, तथा प्रकाशमान निर्मल दशाओं (द्रव्यपर्यायों) रूप दशा (बत्ती ) से सुशोभित है, वह क्या संसारमें मोहरूपी अन्धकारको नष्ट करता हुआ नहीं प्रतिभासित होता है ? अर्थात् अवश्य ही प्रतिभासित होता है ॥ ३७ ॥ जो बुद्धिरूपी स्त्री बाह्य शास्त्ररूपी वनमें घूमनेवाली है, बहुतसे विकल्पोंको धारण करती है, तथा चैतन्यरूपी कुलीन घरसे निकल चुकी है। वह पतिव्रताके समान समीचीन नहीं है, किन्तु दुराचारिणी स्त्रीके समान है ॥३८॥ जो भव्य जीव हेय और उपादेयका विचार करता हुआ पहले ( हेय ) की अपेक्षा दूसरे (उपादेय ) को प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है उसकी बुद्धि गुरुके उपदेशसे स्थिर आत्मपद (मोक्ष) को ही प्राप्त करती है ॥ ३९॥ मोहरूपी गाढ़ निदाके वशीभूत होकर सोया हुआ यह प्राणी स्त्री-पुत्रादि बाह्य वस्तुओंको अपनी समझता है । वह जब गुरुके ऊंचे वचन अर्थात् उपदेशसे जाग उठता है तब संयोगको प्राप्त हुए उन भक सदशः। २म विषडयन्, कविडम्बयन् । ३च सुप्त एतदिह मोह। ४भवर्ति, कवर्तिनः । ५क'त्याज्यं' नास्ति। ६क'प्रा' नास्ति। ७ उपदेशाद। ८शगुरोर्वचसा। परान...
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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