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________________ १७२ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [560 : १०-१३560) कर्मबन्धकलितो ऽप्यबन्धनो रागद्वेषमलिनो ऽपि निर्मलः। देहवानपि च देहवर्जितश्चित्रमेतदखिलं किलात्मनः ॥ १३ ॥ 561 ) निर्विनाशमपि नाशमाश्रितं शून्यमप्यतिशयेन संभृतम्। एकमेव गतमप्यनेकतां तत्त्वमीडगपि नो विरुध्यते ॥ १४ ॥ 562 ) विस्मृतार्थपरिमार्गणं यथा यस्तथा सहजचेतनाश्रितः। स क्रमेण परमेकतां गतः स्वस्वरूपपदमाश्रयेडुवम् ॥ १५॥ 563) यद्यदेव मनसि स्थितं भवेत् तत्तदेव सहसा परित्यजेत् । इत्युपाधिपरिहारपूर्णता सा यदा भवति तत्पदं तदा ॥ १६ ॥ अवबुध्य ज्ञात्वा। प्रचुरजन्मसंकटे भ्राम्यति ॥ १२॥ किल इति सत्ये। आत्मनः एतत् । चित्रम् अखिलम् आश्चर्यम् । तत्किम् । व्याप्तः अपि आत्मा। अबन्धनः बन्धरहितः। रागद्वेषमलिनः आत्मा अपि निर्मलः । च पुनः । देहवानपि आत्मा देहवर्जितः । एतत्सर्व चित्रम् ॥ १३ ॥ ईदृक् अपि तत्त्वं नो विरुध्यते । महः निर्विनाशमपि नाशम् आश्रितम् । शून्यम् अपि अतिशयेन संभृतम् । एकमपि आत्मतत्त्वम् अनेकतां गतम् । ईदृग अपि तत्त्वं नो विरुध्यते ॥ १४ ॥ सः भव्यः । क्रमेण खस्वरूपपदम् आश्रयेत् । किंलक्षणः स भव्यः । ध्रुवं परम् एकतां गतः यः भव्यः । तथा सहजचेतनाश्रितः यथा विस्मृतार्थपरिमार्गणं विस्मृत-अर्थ-अवलोकन विचारणं वा ॥ १५॥ यत् यत् विकल्पं मनसि स्थितं भवेत् तत्तदेव विकल्पं सहसा शीघ्रण परित्यजेत् । इति उपाधिपरिहारपूर्णता संकल्पविकल्पपरिहारः त्यागः यदा भवति तदा तत्पदं मोक्षपदं भवति ॥ १६ ॥ Ans करे ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार अन्धा मनुष्य हाथीके यथार्थ आकारको न जानकर उसके जिस अवयव (पांव या सूंड आदि) का स्पर्श करता है उसको ही हाथी समझ बैठता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव अनेक धर्म युक्त उस चेतन तत्त्वको यथार्थ स्वरूपसे न जानकर एकान्ततः किसी एक ही धर्मस्वरूप समझ बैठता है। इसी कारण वह जन्म-मरण स्वरूप इस संसारमें ही परिभ्रमण करके दुख सहता है ॥ १२ ॥ यह आत्मा कर्मबन्धसे सहित होकर भी बन्धनसे रहित है, राग-द्वेषसे मलिन होकर भी निर्मल है, तथा शरीरसे सम्बद्ध होकर भी उस शरीरसे रहित है। इस प्रकार यह सब आत्माका स्वरूप आश्चर्यजनक है ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि शुद्ध निश्चयनयसे इस आत्माके न राग-द्वेष परिणाम हैं, न कोका बन्ध है, और न शरीर ही है । वह वास्तवमें वीतराग, स्वाधीन एवं अशरीर होकर सिद्धके समान है। परन्तु पयर्यायस्वरूपसे वह कर्मबन्धसे सहित होकर राग-द्वेषसे मलिन एवं शरीरसे सहित माना जाता है ॥ १३ ॥ वह आत्मतत्त्व विनाशसे रहित होकर भी नाशको प्राप्त है, शून्य होकर भी अतिशयसे परिपूर्ण है, तथा एक होकर भी अनेकताको प्राप्त है। इस प्रकार नयविवक्षासे ऐसा माननेमें कुछ भी विरोध नहीं आता है ॥ १४ ॥ जिस प्रकार मूर्छित मनुष्य स्वाभाविक चेतनाको पाकर (होशमें आकर) अपनी भूली हुई वस्तुकी खोज करने लगता है उसी प्रकार जो भव्य प्राणी अपने स्वाभाविक चैतन्यका आश्रय लेता है वह क्रमसे एकत्वको प्राप्त होकर अपने स्वाभाविक उत्कृष्ट पद ( मोक्ष ) को निश्चित ही प्राप्त कर लेता है ॥ १५ ॥ जो जो विकल्प आकर मनमें स्थित होता है उस उसको शीघ्र ही छोड़ देना चाहिये । इस प्रकार जब वह विकल्पोंका त्याग परिपूर्ण हो जाता है तब वह मोक्षपद भी प्राप्त हो जाता है ॥ १६ ॥ १क चित्रं आश्चर्य अखिलं । २क 'अपि नास्ति । ३श 'स' नास्ति। ४ श यथा ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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