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________________ १५७ --514 : ८-२९] ८. सिद्धस्तुतिः 513) सैवैका सुगतिस्तदेव च सुखं ते एव दृग्बोधने सिद्धानामपरं यदस्ति सकलं तन्मे प्रियं नेतरत् । इत्यालोच्य दृढं त एव च मया चित्ते धृताः सर्वदा तद्रूपं परमं प्रयातुमनसा हित्वा भवं भीषणम् ॥ २८ ॥ 514 ) ते सिद्धाः परमेष्ठिनो न विषया वाचामतस्तान् प्रति प्रायो वच्मि यदेव तत्खलु नभस्यालेख्यमालिख्यते । तन्नामापि मुदे स्मृतं तत इतो भक्त्याथ वाचालितस्तेषां स्तोत्रमिदं तथापि कृतवानम्भोजनन्दी मुनिः ॥ २९ ॥ प्रसिद्धबहिरात्मा-अन्तरात्मा-परमात्माप्रभेदलक्षणम् । पुनः किंलक्षणम् आत्मगृहम् । बहु-आत्म-अध्यवसानसंगतलसत्सोपानशोभान्वितम् । किंलक्षणः आत्मा। विभुः। आत्मसुहृदः परमात्मना । हस्तावलम्बी। सिद्धः निष्पन्नः। आनन्दकलत्रसंगतभुवं परमानन्दम् । सदा मोदते ॥ २७ ॥ सा एका सुगतिः । च पुनः । तदेव सुखम् । ते द्वे एव दृग्बोधने । सिद्धानां यत् अपरं गुणम् (?) अस्ति । मे मम । तत्सकलं प्रियम् इष्टम् । इतरत् अन्यत् । इष्टं न। इति आलोच्य विचार्य। ते एव सिद्धाः । मया सर्वदा चित्ते धृताः। भीषणं भवं संसारं हित्वा परं तद्रूपं मनसा कृत्वा प्रयातु प्राप्नोतु ॥ २८ ॥ ते सिद्धाः वाचा विषया गोचराः न । किंलक्षणाः सिद्धाः । परमेष्ठिनः । अतः कारणात् । तान् सिद्धान् प्रति । प्रायः बाहुल्येन । यदेव वच्मि तत्खलु । नभसि आकाशे। आलेख्यं चित्रम। आलिख्यते । तथापि । अम्भोजनन्दी मुनिः पद्मनन्दी मुनिः । तेषां सिद्धानाम् । इदं स्तोत्रं कृतवान् । तन्नामापि तेषां सिद्धानां नामापि। मुदे हर्षाय । स्मृतं कथितम् । ततस्तस्माद्धेतोः । अथ भक्त्या कृत्वा । इतः वाचालित्वात् वाचालितः । पद्मनन्दी मुनिः इदं स्तोत्रं कृतवान् ॥ २९ ॥ इति सिद्धस्तुतिः॥८॥ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww आश्रय लेनेवाला यह आत्मारूप राजा आनन्दरूप स्त्रीसे अधिष्ठित पृथिवीपर चढ़कर मुक्त होता हुआ सदा आनन्दित रहता है । विशेषार्थ- जिस प्रकार अनेक सीढ़ियोंसे सुशोभित पांच-सात खण्डोंवाले भवनमें मनुष्य किसी मित्रके हाथका सहारा लेकर उन सीढ़ियों ( पायरियों) के आश्रयसे अनायास ही ऊपर अभीष्ट स्थानमें पहुंचकर आनन्दको प्राप्त होता है उसी प्रकार यह जीव अधःप्रवृत्तकरणादि परिणामोंरूप सीढ़ियोंपरसे बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मारूप तीन खण्डोंवाले आत्मारूप भवनमें स्थित होता हुआ अपने आत्मारूप मित्रका हस्तावलम्बन लेकर ( आत्मलीन होकर ) शाश्वतिक सुखसे संयुक्त उस सिद्धक्षेत्रमें पहुंच जाता है जहां वह अनन्त काल तक अबाध सुखको भोगता है ॥ २७ ॥ सिद्धोंकी जो गति है वही एक उत्तम गति है। उनका जो सुख है वही एक उत्तम सुख है। उनके जो ज्ञान-दर्शन हैं वे ही यथार्थ ज्ञान-दर्शन हैं, तथा और भी जो कुछ सिद्धोंका है वह सब मुझको प्रिय है। इसको छोड़कर और दूसरा कुछ भी मुझे प्रिय नहीं है । इस प्रकार विचार करते हुए मैंने भयानक संसारको छोड़कर और उन सिद्धोंके उत्कृष्ट स्वरूपकी प्राप्तिमें मन लगाकर अपने चित्तमें निरन्तर उन सिद्धोंको ही दृढ़ता पूर्वक धारण किया है। ॥ २८ ॥ वे सिद्ध परमेष्ठी चूंकि वचनोंके विषय नहीं हैं अत एव प्रायः उनको लक्ष्य करके जो कुछ भी मैं कह रहा हूं वह आकाशमें चित्रलेखनके समान है । फिर भी चूंकि उनके नाम मात्रका स्मरण भी आनन्दको उत्पन्न करता है, अत एव भक्तिवश वाचालित (वकवादी ) होकर मैंने पद्मनन्दी मुनिने-उनके इस स्तोत्रको किया है ॥ २९ ॥ इस प्रकार सिद्धस्तुति समाप्त हुई ॥ ८ ॥ १ब सिद्धोः। २ क विभुः राजा आत्म। ३मक निष्पन्नः सदा। ४ श चित्राम। ५श तथा ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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