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________________ 3 पचनन्दि- पञ्चविंशतिः 499) स्याच्छन्दामृतगर्मितागममहारत्नाकरखानतो घौता यस्य मतिः स एव मनुते तत्त्वं विमुक्तात्मनः । ततस्यैव तदेव याति सुमतेः साक्षादुपादेयतां भेदेन स्वकृतेन तेन च विना स्वं रूपमेकं परम् ॥ १४ ॥ [499:6-8 अप्रभाषत्वं तस्मात् अप्रमाणत्वात् । यत्सिद्धज्योतिः शून्यं संसाराभावात् । यत्सिद्धज्योतिः नो शून्यं खचतुष्टयेन नो शून्यम् । यत्सिद्धज्योतिः उत्पद्यते नश्यति पर्यायार्थनयेने । यत्सिद्धज्योतिः नित्यं द्रव्यनयेन । यत्सिद्धज्योतिः नास्ति अस्तिगुणापेक्षया द्रव्यस्य नाखित्वं गुणस्य अस्तित्वं द्रव्यापेक्षमा गुणस्य नास्तित्वं द्रव्यस्य अस्तित्वम् । यत्सिद्धज्योतिः एकं द्रव्यतः । यत्सिद्धज्योति: अनेकं गुणनः । यत्सिद्धज्योतिः तदपि दृढां प्रतीतिं प्राप्तम् । यत्सिद्धज्योतिः अमूर्ति चित्सुखमयम् । तत् केनापि लक्ष्मते ॥ १३ ॥ यस्य मन्यस्य मतिः । स्यात्शब्द- अस्तित्वादिशब्दामृतेन गर्मितः आगमः एव रत्नाकरः तस्य स्नानतः । चीता प्रक्षालिता यस्म मतिः स एव विशुद्धात्मनः तत्त्वं मनुते । तत्तस्मात्कारणात् । तस्य सुमतेः । तदेव आत्मतत्त्वम् । उपादेयतां याति प्राह्ममावं याति । केन । मेदेन मेदज्ञानेन । च पुनः । तेन । खकृतेन आत्मना कृतेन । विना भेदज्ञानेन विना । एकं परं १ समुपलक्ते । द्वारा देखी जाती है ॥ विशेषार्थ — यहां जो सिद्धज्योतिको परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धर्मोस संयुक्त बतलाया है वह विवक्षामेदसे बतलाया गया है । यथा - वह सिद्धज्योति चूंकि अतीन्द्रिय है अत एव सूक्ष्म कही जाती है । परन्तु उसमें अनन्तानन्त पदार्थ प्रतिभासित होते हैं, अतः इस अपेक्षासे वह स्थल भी कही जाती है । वह पर ( पुद्गलादि ) द्रव्योंके गुणोंसे रहित होनेके कारण शून्य तथा अनन्तचतुष्टयसे संयुक्त होनेके कारण परिपूर्ण भी है । पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा वह परिणमनशील होनेसे उत्पाद - विनाशशाली तथा द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा विकार रहित होनेसे नित्य भी मानी जाती है । स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और मावकी अपेक्षा वह सद्भावस्वरूप तथा पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा अमावस्वरूप मी है । वह अपने स्वभावको छोड़कर अन्यस्वरूप न होनेके कारण एक तथा अनेक पदार्थोक स्वरूपको प्रतिभासित करनेके कारण अनेक स्वरूप भी है। ऐसी उस सिद्धज्योतिका चिन्तन सभी नहीं कर पाते, किन्तु निर्मल ज्ञानके धारक कुछ विशेष योगीजन ही उसका चिन्तन करते हैं ॥ १३ ॥ 'स्वात्' शब्दरूप अमृतसे गर्भित आगम ( अनेकान्तसिद्धान्त ) रूपी महासमुद्र में स्नान करनेसे जिसकी बुद्धि निर्मल हो चुकी है वही सिद्ध आत्माके रहस्यको जान सकता है । इसलिये उसी सुबुद्धि नीवके लिये जब तक अपने आप किया गया मेद ( संसारी व मुक्त स्वरूप ) विद्यमान है तब तक वही सिद्धस्वरूप साक्षात् उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) होता है । तत्पश्चात् उपर्युक्त मेदबुद्धिके नष्ट हो जानेपर केवल एक निर्विकल्पक शुद्ध आत्मतत्त्व ही प्रतिमासित होता है- उस समय वह उपादान - उपादेय भाव भी नष्ट हो जाता है ॥ विशेषार्थ — यह भव्य जीव जब अनेकान्तमय परमागमका अभ्यास करता है तब वह विवेकबुद्धिको प्राप्त होकर सिद्धोंके यथार्थ स्वरूपको जान लेता है । उस समय वह अपने आपको कर्मकलंकसे लिप्त जानकर उसी सिद्ध स्वरूपको ही उपादेय ( आ ) मानता है । किन्तु जैसे ही उसके स्वरूपाचरण प्रगट होता है वैसे ही उसकी वह संसारी और मुक्त विषयक मेदबुद्धि भी नष्ट हो जाती है- उस समय उसके ध्यान, ध्याता एवं ध्येयका भेद ही नहीं रहता । तब उसे सब प्रकारके विकल्पोंसे रहित एकमात्र मतोऽये 'पुननं विक्ते प्रमाणं मर्यादा यस्य तत् अप्रमाणं मीयते प्रमाणीक्रियते मर्यादीक्रियते तत् प्रमाणं' इत्येतावान् पाठोऽधिकः पर्यायनयेन । २
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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