SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ पन्भनन्दि-पञ्चविंशतिः [447 : ६-५१ 447 ) जीवपोतो भवाम्भोधौ मिथ्यात्वादिकरन्ध्रवान् । आस्रवति विनाशार्थ कर्माम्भः सुचिरं भ्रमात्॥ 448) कर्मास्रवनिरोधो ऽत्र संवरो भवति ध्रुवम् । साक्षादेतदनुष्ठानं मनोवाकायसंवृतिः ॥ ५२ ॥ 449) निर्जरा शातनं प्रोक्ता पूर्वोपार्जितकर्मणाम् । तपोभिर्बहुभिः सा स्याद्वैराग्याश्रितचेष्टितैः॥५३॥ 450) लोकः सर्वो ऽपि सर्वत्र सापायस्थितिरधुवः । दुःखकारीति कर्तव्या मोक्ष एव मतिः सताम् ॥ 451) रत्नत्रयपरिप्राप्तिबोधिः सातीव दुर्लभा । लब्धा कथं कथंचिच्चेत् कार्यो यत्नो महानिह ॥ ५५॥ अपवित्रता भवति । किंलक्षणः कायः। कृमिधातुमलान्वितः ॥ ५० ॥ भव-अम्भोधौ संसारसमुद्रे । जीवपोतः जीवप्रोहणः । भ्रमात् । कर्माम्भः कर्मजलम् । सुचिरं चिरकालम् । विनाशार्थम् आस्रवति । किंलक्षणः जीवप्रोहणः । मिथ्यात्वादिकरन्ध्रवान् छिद्रवान् ॥५१॥ अत्र कर्मानवनिरोधः ध्रुवं साक्षात् संवरो भवति। एतदनुष्ठानं एतस्य कर्मास्रवनिरोधस्य आचरणम् । मनोवाकायसंवृतिः संवरः॥५२॥ पूर्वोपार्जितकर्मणाम् । शातनं शटनम् । निर्जरा । प्रोक्ता कथिता। सा निर्जरा । बहुभिः तपोभिः स्यात् भवेत् । सा निर्जरा। वैराग्याश्रितचेष्टितैः कृत्वा भवेत् ॥ ५३ ॥ सर्वः अपि लोकः सर्वत्र सापायस्थितिः विनाशसहितस्थितिः । अध्रुवः दुःखकारी । इति हेतोः । सतां मतिः मोक्षे कर्तव्या । एव निश्चयेन ॥ ५४ ॥ रत्नत्रयपरिप्राप्तिः बोधिः [सा] अतीव दुर्लभा । चेत् कथं कथंचित् लब्धा । इह बोधौ। महान् यत्नः कार्यः कर्तव्यः ॥ ५५ ॥ अपवित्र हो जाती हैं । इस प्रकारसे शरीरके स्वरूपका विचार करना, यह अशुचिभावना है ॥ ५० ॥ संसाररूपी समुद्रमें मिथ्यात्वादिरूप छेदोंसे संयुक्त जीवरूपी नाव भ्रम ( अज्ञान व परिभ्रमण) के कारण बहुत कालसे आत्मविनाशके लिये कर्मरूपी जलको ग्रहण करती है ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार छिद्र युक्त नाव घूमकर उक्त छिद्रके द्वारा जलको ग्रहण करती हुई अन्तमें समुद्रमें डूबकर अपनेको नष्ट कर देती है उसी प्रकार यह जीव भी संसारमें परिभ्रमण करता हुआ मिथ्यात्वादिके द्वारा कर्मोंका आस्रव करके इसी दुःखमय संसारमें घूमता रहता है । तात्पर्य यह है कि दुखका कारण यह कर्मोंका आस्रव ही है, इसीलिये उसे छोड़ना चाहिये । इस प्रकारके विचारका नाम आस्रवभावना है ॥ ५१ ॥ कोंके आस्रवको रोकना, यह निश्चयसे संवर कहलाता है । इस संवरका साक्षात् अनुष्ठान मन, वचन और कायकी अशुभ प्रवृत्तिको रोक देना ही है ॥ विशेषार्थ-जिन मिथ्यात्व एवं अविरति आदि परिणामों के द्वारा कर्म आते हैं उन्हें आस्रव तथा उनके निरोधको संवर कहा जाता है । आस्रव जहां संसारका कारण है वहां संवर मोक्षका कारण है । इसीलिये आस्रव हेय और संवर उपादेय है। इस प्रकार संवरके स्वरूपका विचार करना, यह संवरभावना कही जाती है ॥ ५२ ॥ पूर्वसंचित कोंको धीरे धीरे नष्ट करना, यह निर्जरा कही गई है । वह वैराग्यके आलम्बनसे प्रवृत्त होनेवाले बहुतसे तपोंके द्वारा होती है। इस प्रकार निर्जराके स्वरूपका विचार करना, यह निर्जराभावना है ॥ ५३ ॥ यह सब लोक सर्वत्र विनाशयुक्त स्थितिसे सहित, अनित्य तथा दुःखदायी है। इसीलिये विवेकी जनोंको अपनी बुद्धि मोक्षके विषयमें ही लगानी चाहिये ॥ विशेषार्थ- यह चौदह राजु ऊंचा लोक अनादिनिधन है, इसका कोई करता-धरता नहीं है । जीव अपने कर्मके अनुसार इस लोकमें परिभ्रमण करता हुआ कभी नारकी, कभी तिथंच, कभी देव और कभी मनुष्य होता है। इसमें परिभ्रमण करते हुए जीवको कभी निराकुल सुख प्राप्त नहीं होता। वह निराकुल सुख मोक्ष प्राप्त होनेपर ही उत्पन्न होता है । इसलिये विवेकी जनको उक्त मोक्षकी प्राप्तिका ही प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकार लोकके खभावका विचार करना, यह लोकभावना कहलाती है ।। ५४ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वरूप रत्नत्रयकी प्राप्तिका नाम बोधि है । वह बहुत ही दुर्लभ १ मु (जै. सि.) प्रचुरं। २ क अध्रुवं। ३ श प्राप्तिः सा बोधिः अतीव ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy