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________________ पानन्दि-पञ्चविंशतिः [832:४-२५332 ) केनापि हि परेण स्यात्संबन्धो बन्धकारणम् । परैकत्वपदे शान्ते मुक्तये स्थितिरात्मनः ॥२५॥ 333) विकल्पोर्मिभरत्यक्तः शान्तः कैवल्यमाश्रितः । कर्माभावे भवेदात्मा वाताभावे समुद्रवत् ॥२६॥ 334) संयोगेन यदायातं मत्तस्तत्सकलं परम् । तत्परित्यागयोगेन मुक्तोऽहमिति मे मतिः ॥२७॥ 335) किं मे करिष्यतः रौ शुभाशुभनिशाचरौ । रागद्वेषपरित्यागमहामन्त्रेण कीलितौ ॥ २८॥ 336) संबन्धेऽपि सति त्याज्यौ रागद्वेषौ महात्मभिः। विना तेनापि ये कुर्युस्ते कुर्युः किं न वातुलाः॥ 337 ) मनोवाकायचेष्टाभिस्तद्विधं कर्म जृम्भते । उपास्यते तदेवैकं ताभ्यो भिन्नं मुमुक्षुभिः ॥३०॥ स्थाद्भवेत् । पर-श्रेष्ठ-एकत्वपदे शान्ते आत्मनः स्थितिः । मुक्तये मोक्षाय भवति ॥ २५ ॥ आत्मा शान्तः भवेत् । किंलक्षण भात्मा। विकल्प-ऊर्मिभरत्यकः रहितः। कैवल्यम् आश्रितः। शान्तः भवेत् । क सति। कर्माभावे सति । किंवत् । वाताभावे पवनाभावे । समुद्रवत् ॥ २६ ॥ यत् संयोगेन आयातं वस्तु तत्सकलं वस्तु मत्तः सकाशात् । परं भिन्नम् । तत्परित्यागयोगेन तस्य वस्तुनः परित्यागयोगेन । अहं मुक्तः इति मे मतिः ॥ २७॥ शुभाशुभनिशाचरौ पुण्यपापराक्षसौ द्वौ। मे किं करिष्यतः। किलक्षणौ पुण्यपापराक्षसौ। रागद्वेषपरित्यागमहामन्त्रेण कीलितौ ॥ २८ ॥ महात्मभिः भव्यैः । संबन्धेऽपि सति रागद्वेषौ त्याज्यौ। ये मूर्खाः । तेन संबन्धेन विना अपि रागद्वेषं कुर्युः । ते मूर्खाः । किं न कुर्युः ॥ २९ ॥ मनोवाकायचेष्टाभिः । तद्विधं पुण्यपापरूपं कर्म । जृम्भते प्रसरति । मुमुक्षुभिः मुनीश्वरैः। तत् एव एकम् आत्मतत्त्वम् । उपास्यते सेव्यते । किंलक्षणम् आत्मतत्त्वम् । तेभ्यः पूर्वोकेभ्यः पापपुण्येभ्यो' भिन्नम् ॥ ३० ॥ खलु इति निश्चितम् । द्वैततः कर्मबन्धात् । द्वैतं संसारः जायते । अद्वैतात् अर्थात् परमात्मा बन जाता है ।। २४ ॥ किसी भी पर पदार्थसे जो सम्बन्ध होता है वह बन्धका कारण होता है, किन्तु शान्त व उत्कृष्ट एकत्वपदमें जो आत्माकी स्थिति होती है वह मुक्तिका कारण होती है ॥२५॥ कर्मके अभावमें यह आत्मा वायुके अभावमें समुद्रके समान विकल्पोंरूप लहरोंके भारसे रहित और शान्त होकर कैवल्य अवस्थाको प्राप्त हो जाती है । विशेषार्थ-जिस प्रकार वायुका संचार न होनेपर समुद्र लहरोंसे रहित, शान्त और एकत्व अवस्थासे युक्त होता है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कोंका अभाव हो जानेपर यह आत्मा सब प्रकारके विकल्पोंसे रहित, शान्त (कोधादि विकारोंसे रहित) और केवली अवस्थासे युक्त हो जाता है ॥ २६ ॥ संयोगसे जो कुछ भी प्राप्त हुआ है वह सब मुझसे भिन्न है। उसका परित्याग कर देनेके सम्बन्धसे मैं मुक्त हो चुका, ऐसा मेरा निश्चय है ॥ विशेषार्थ-यह प्राणी स्त्री, पुत्र, मित्र एवं धनसम्पत्ति आदि पर पदार्थोंके संयोगसे ही अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगता है, अत एव उक्त संयोगका ही परित्याग करना चाहिये। ऐसा करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ २७ ॥ जिन पुण्य और पापरूप दोनों दुष्ट राक्षसोंको राग-द्वेषके परित्यागरूप महामंत्रके द्वारा कीलित किया जा चुका है वे अब मेरा (आत्माका) क्या कर सकेंगे? अर्थात् वे कुछ भी हानि नहीं कर सकेंगे ॥ विशेषार्थ-जो पुण्य और पापरूप कर्म प्राणीको अनेक प्रकारका कष्ट (पारतंत्र्य आदि) दिया करते हैं उनका बन्ध राग और द्वेषके निमित्तसे ही होता है। अत एव उक्त राग-द्वेषका परित्याग कर देनेसे उनका बन्ध स्वयमेव रुक जाता है और इस प्रकारसे आत्मा स्वतंत्र हो जाता है ॥२८॥ महात्माओंको सम्बन्ध (निमित्त) के भी होनेपर उन राग-द्वेषका परित्याग करना चाहिये । जो जीव उस (सम्बन्ध) के विना भी राग-द्वेष करते हैं वे वातरोगसे ग्रसित रोगीके समान अपना कौन-सा अहित नहीं करते हैं ? अर्थात् वे अपना सब प्रकारसे अहित करते हैं ॥ २९ ॥ मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिसे उस प्रकारका अर्थात् तदनुसार पुण्य-पापरूप कर्म वृद्धिंगत होता है । अत एव मुमुक्षु जन उक्त मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिसे भिन्न उसी एक आत्मतत्त्वकी उपासना किया करते हैं ॥३०॥ द्वैतभावसे नियमतः - - १.कशतेभ्यो। २कतेभ्यः पुण्यपापेभ्यो।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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