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________________ १०० पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [215:३२३. 275) आक्रन्दं कुरुते यदत्र जनता नष्टे निजे मानुषे जाते यच्च मुदं तदुन्नतधियो जल्पन्ति वातूलताम् । यजाड्यात्कृतदुष्टचेष्टितभवत्कर्मप्रबन्धोदयात् मृत्यूत्पत्तिपरम्परामयमिदं सर्व जगत्सर्वदा ॥ २३ ॥ 276) गुर्वी भ्रान्तिरियं जडत्वमथ वा लोकस्य यस्माद्वसन् संसारे बहुदुःखजालजटिले शोकीभवत्यापदि । भूतप्रेतपिशाचफेरवचितापूर्णे श्मशाने गृहं कः कृत्वा भयदादमङ्गलकृते भावाद्भवेच्छङ्कितः ॥ २४॥ 277) भ्रमति नभसि चन्द्रः संसृतौ शश्वदङ्गी लभत उदयमस्तं पूर्णतां हीनतां च । कलुषितहृदयः सन् याति राशिं च राशेस्तनुमिह तनुतस्तत्कात्र मुत्कश्च शोकः ॥२५॥ मृतेः मरणस्य । सा वेला देवैरपि । नृपक्ष्मचलनस्तोका अपि मनुष्यनेत्रपलकसदृशापि । न लक्यते। तत्तस्मात्कारणात् । कस्मिन् इष्टे । संस्थिते सति मृते सति । सुखकरम् । श्रेयः पुण्यम् । विहाय त्यक्त्वा । कः सुधीः ज्ञानवान् । शोकं विदध्यात् शोक कुर्यात् । किलक्षणं शोकम् । सर्वत्र सदैव दुरन्तदुःखजनकम् उत्पादकम् ॥ २२ ॥ अत्र संसारे । जनता जनसमूहः । निजे मानुषे नष्टे सति मृते सति यत् आक्रन्दं रोद॑नम् । कुरुते । च पुनः । निजे इष्टे जाते सति उत्पन्ने सति । मुदं हर्षम् । कुरुते । तत् । उन्नतधियः गणधरदेवाः । वातूलताम् । जल्पन्ति कथयन्ति । यत् यतः । इदं सर्व जगत् । सर्वदा सदैव । जाच्यात्कृतदुष्टचेष्टितभवत्कर्मप्रबन्धोदयात् उपार्जितकर्मविपाकात् । मृत्यूत्पत्तिपरम्परामयं सर्व जगत् इत्यर्थः ॥ २३ ॥ लोकस्य इयं गुर्वी भ्रान्तिः गुरुतरभ्रमः। अथवा जडत्वं यस्मात् संसारे। वसन् तिष्ठन् सन् । आपदि सत्याम् । शोकीभवति शोकं करोति । किलक्षणे संसारे । बहुदुःखजालजटिले बहुलदुःखपूर्णे । श्मशाने गृहं कृत्वा । भयदात् भावात् पदार्थात् । कः पुमान् शक्तिः भवेत् । किंलक्षणे श्मशाने। भूतप्रेतपिशाचफेरवफेत्कारशब्दचितापूर्णे । पुनः किंलक्षणे श्मशाने । अमङ्गलकृते अमालखरूपे ॥ २४ ॥ यथा चन्द्रः शश्वत् । नभसि आकाशे । भ्रमति । तथा संसृतौ संसारे। अङ्गी जीवः । भ्रमति । च (पलककी टिमकार ) के बराबर थोड़ा-सा भी नहीं लांघ सकते। इस कारण किसी भी इष्ट जनके मरणको प्राप्त होनेपर कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्य सुखदायक कल्याणमार्गको छोड़कर सर्वत्र अपार दुःखको उत्पन्न करनेवाले शोकको करता है ? अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् शोकको नहीं करता ॥ २२ ॥ संसारमें जनसमुदाय अपने किसी सम्बन्धी मनुष्यके मरणको प्राप्त होनेपर जो विलापपूर्वक चिल्लाकर रुदन करता है तथा उसके उत्पन्न होनेपर जो हर्ष करता है उसे उन्नत बुद्धिके धारक गणधर आदि पागलपन बतलाते हैं। कारण कि मूर्खतावश जो दुष्प्रवृत्तियां की गई हैं उनसे होनेवाले कर्मके प्रकृष्ट बन्ध व उसके उदयसे सदा यह सब जगत् मृत्यु और उत्पत्तिकी परम्परास्वरूप है ॥ २३ ॥ बहुत दुःखोंके समूहसे परिपूर्ण ऐसे संसारमें रहनेवाला मनुष्य आपत्तिके आनेपर जो शोकाकुल होता है यह उसकी बड़ी भारी भ्रान्ति अथवा अज्ञानता है । ठीक है-जो व्यक्ति भूत, प्रेत, पिशाच, शृगाल और चिताओंसे भरे हुए ऐसे अमंगलकारक श्मशानमें मकानको बनाकर रहता है वह क्या भयको उत्पन्न करनेवाले पदार्थ से कभी शंकित होगा ? अर्थात् नहीं होगा ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार भूत-प्रेतादिसे व्याप्त श्मशानमें घर बनाकर रहनेवाला व्यक्ति कभी अन्य पदार्थसे भयभीत नहीं होता, उसी प्रकार अनेक दुःखोंसे परिपूर्ण इस जन्म-मरणरूप संसारमें परिभ्रमण करनेवाले जीवको भी किसी इष्टवियोगादिरूप आपत्तिके प्राप्त होनेपर व्याकुल नहीं होना चाहिये। फिर यदि ऐसी आपत्तियोंके आनेपर प्राणी शोकादिसे संतप्त होता है तो इसमें उसकी अज्ञानता ही कारण है, क्योंकि, जब संसार स्वभावसे ही दुःखमय है तब आपत्तियोंका आना जाना तो रहेगा ही। फिर उसमें रहते हुए भला हर्ष और विषाद करनेसे कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा ? ॥ २४ ॥ जिस प्रकार चन्द्रमा १शक रुदनं। २क'इत्यर्थः नास्ति ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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