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________________ ८६ पमनन्दि-पञ्चविंशतिः [228 : २-३०228 ) ये धर्मकारणसमुल्लसिता विकल्पास्त्यागेन ते धनयुतस्य भवन्ति सत्याः । स्पृष्टाः शशाङ्ककिरणैरमृतं क्षरन्तश्चन्द्रोपलाः किल लभन्त इह प्रतिष्ठाम् ॥ ३० ॥ 229) मन्दायते य इह दानविधौ धने ऽपि सत्यात्मनो वदति धार्मिकतां च यत्तत् । माया हृदि स्फुरति सा मनुजस्य तस्य या जायते तडिदमुत्र सुखाचलेषु ॥ ३१ ॥ 230) प्रासस्तदर्धमपि देयमथार्धमेव तस्यापि संततमणुवतिना यथर्द्धि।। इच्छानुरूपमिह कस्य कदात्र लोके द्रव्यं भविष्यति सदुत्तमदानहेतुः ॥ ३२॥ अनिष्टं मनुते । सत्यम् ॥ २९ ॥ धनयुतस्यै धनवतः पुरुषस्य । ये विकल्पाः । धर्मकारणे समुल्लसिताः उत्पन्नाः । ते विकल्पाः । त्यागेन दानेन । सत्याः सफलाः भवन्ति । किल इति सत्ये। यथा चन्द्रोपलाः चन्द्रकान्तमणयः । शशाङ्ककिरणः चन्द्रकिरणः स्पृष्टाः स्पर्शिताः । अमृतं क्षरन्तः । इह जगति । प्रतिष्ठां शोभाम् । लभन्ते ॥ ३०॥ यः नरः । इह जगति संसारे। दानविधी। मन्दायते निरुद्यमो भवति । क्व सति । धनेऽपि सति धने विद्यमाने सति । यत् आत्मनः धार्मिकता वदति अहं धर्मवान् इति कथयति । तत्तस्य मनुजस्य नरस्य । हृदि सा माया स्फुरति । या माया । अमुत्र सुखाचलेषु परलोकसुखपर्वतेषु । तडिद विद्युत् । जायते उत्पद्यते ॥३१॥ इह संसारे । अणुव्रतिना गृहस्थेन ग्रासः देयः । कस्मै । पात्राय । तस्य प्रासस्य अर्थ देयम् । यथाशक्ति । तस्य प्रासार्धस्यापि अर्ध यर्द्धि यथाशक्ति देयम् । अत्र लोके इच्छानुरूपं द्रव्यं कस्य कदा पुत्रका मरण हो जाता है तो वह शोकाकुल नहीं होता है । कारण कि वह जानता है कि यह पुत्रवियोग अपने पूर्वोपार्जित कर्मके उदयसे हुआ है जो कि किसी भी प्रकारसे टाला नहीं जा सकता था। परन्तु उसके यहां यदि किसी दिन साधु जनको आहारादि नहीं दिया जाता है तो वह इसके लिये पश्चात्ताप करता है । इसका कारण यह है कि वह उसकी असावधानीसे हुआ है, इसमें दैव कुछ बाधक नहीं हुआ है। यदि वह सावधान रहकर द्वारापेक्षण आदि करता तो मुनिदानका सुयोग उसे प्राप्त हो सकता था ॥ २९ ॥ धर्मके साधनार्थ जो विकल्प उत्पन्न होते हैं वे धनवान् मनुष्यके दानके द्वारा सत्य होते हैं। ठीक हैचन्द्रकान्त मणि चन्द्रकिरणोंसे स्पर्शित होकर अमृतको बहाते हुए ही यहां प्रतिष्ठाको प्राप्त होते हैं। विशेषार्थअभिप्राय यह है कि पात्रके लिये दान देनेवाला श्रावक इस भवमें उक्त दानके द्वारा लोकमें प्रतिष्ठाको प्राप्त करता है । जैसे- चन्द्रकान्त मणिसे निर्मित भवनको देखते हुए भी साधारण मनुष्य उक्त चन्द्रकान्त मणिका परिचय नहीं पाता है। किन्तु चन्द्रमोका उदय होनेपर जब उक्त भवनसे पानीका प्रवाह बहने लगता है तब साधारणसे साधारण मनुष्य भी यह समझ लेता है कि उक्त भवन चन्द्रकान्त मणियोंसे निर्मित है। इसीलिये वह उनकी प्रशंसा करता है । ठीक इसी प्रकारसे विवेकी दाता जिनमन्दिर आदिका निर्माण कराकर अपनी सम्पत्तिका सदुपयोग करता है । वह यद्यपि स्वयं अपनी प्रतिष्ठा नहीं चाहता है फिर भी उक्त जिनमन्दिर आदिका अवलोकन करनेवाले अन्य मनुष्य उसकी प्रशंसा करते ही हैं । यह तो हुई इस जन्मकी बात । इसके साथ ही पात्रदानादि धर्मकार्योंके द्वारा जो उसको पुण्यलाभ होता है उससे वह पर जन्ममें भी सम्पन्न व सुखी होता है ॥ ३० ॥ जो मनुष्य धनके रहनेपर भी दान देने में उत्सुक तो नहीं होता, परन्तु अपनी धार्मिकताको प्रगट करता है उसके हृदयमें जो कुटिलता रहती है वह परलोकमें उसके सुखरूपी पर्वतोंके विनाशके लिये बिजलीका काम करती है ॥ ३१॥ अणुव्रती श्रावकको निरन्तर अपनी सम्पत्तिके अनुसार एक प्रास, आधा ग्रास अथवा उसके भी आधे भाग अर्थात् मासके चतुर्थाशको भी देना चाहिये। कारण यह कि यहां लोकमें अपनी इच्छानुसार द्रव्य किसके किस समय होगा जो कि उत्तम पात्रदानका कारण १ क यथार्धम् । २श धनयुक्तस्य । ३ क तस्व अर्धग्रासस्य अपि अर्थ यथाथकि।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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