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________________ -139:१-१३९] १. धर्मोपदेशामृतम् किं कृत्वा । नयप्रमाणनिक्षेपकादिभिः । अधिगम्य ज्ञात्वा ॥ १३९ ॥ भो आत्मन् । इह जगति संसारे । भवरिपुः संसारशत्रुः । जो तीन कालविषयक पर्यायोंको छोड़कर केवल वर्तमान कालविषयक पर्यायको ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है । जो लिंग, संख्या (वचन), काल, कारक और पुरुष (उत्तमादि) आदिके व्यभिचारको दूर करके वस्तुको ग्रहण करता है उसे शब्दनय कहते हैं । लिंगव्यभिचार-जैसे स्त्रीलिंगमें पुलिंगका प्रयोग करना । यथा-तारकाके लिये स्वाति शब्दका प्रयोग करना । इत्यादि व्यभिचार शब्दनयकी दृष्टिमें अग्राह्य नहीं है । जो एक ही अर्थको शब्दभेदसे अनेक रूपमें ग्रहण करता है उसे शब्दनय कहते हैं । जैसे एक ही इन्द्र व्यक्ति इन्दन (शासन) क्रियाके निमित्तसे इन्द्र, शकन (सामर्थ्यरूप) क्रियासे शक्र, तथा पुरोंके विदारण करनेसे पुरन्दर कहा जाता है । इस नयकी दृष्टिमें पर्यायशब्दोंका प्रयोग अग्राह्य है, क्योंकि, एक अर्थका बोधक एक ही शब्द होता है - समानार्थक अन्य शब्द उसका बोध नहीं करा सकता है । पदार्थ जिस क्षणमें जिस क्रियामें परिणत हो उसको जो उसी क्षणमें उसी स्वरूपसे ग्रहण करता है उसे एवम्भूतनय कहते हैं । इस नयकी अपेक्षा इन्द्र जब शासन क्रियामें परिणत रहेगा तब ही वह इन्द्र शब्दका वाच्य होगा, न कि अन्य समयमें भी । प्रमाण सम्यग्ज्ञानको कहा जाता है । वह प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है । जो ज्ञान इन्द्रिय, मन एवं प्रकाश और उपदेश आदि बाह्य निमित्तकी अपेक्षासे उत्पन्न होता है वह परोक्ष कहा जाता है । उसके दो भेद हैं- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । जो ज्ञान इन्द्रियों और मनकी सहायतासे उत्पन्न होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं । इस मतिज्ञानसे जानी हुई वस्तुके विषयमें जो विशेष विचार उत्पन्न होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है । प्रत्यक्ष प्रमाण तीन प्रकारका हैअवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनमें जो इन्द्रिय आदिकी अपेक्षा न करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिये हुए रूपी (पुद्गल और उससे सम्बद्ध संसारी प्राणी) पदार्थको ग्रहण करता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं । जो जीवोंके मनोगत पदार्थको जानता है वह मनःपर्ययज्ञान कहलाता है। समस्त विश्वको युगपत् ग्रहण करनेवाला ज्ञान केवलज्ञान कहा जाता है । ये तीनों ही ज्ञान अतीन्द्रिय हैं। निक्षेप शब्दका अर्थ रखना है । प्रत्येक शब्दका प्रयोग अनेक अर्थोंमें हुआ करता है। उनमेंसे किस समय कौन-सा अर्थ अभीष्ट है, यह बतलाना निक्षेप विधिका कार्य है । वह निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे चार प्रकारका है। वस्तुमें विवक्षित गुण एवं क्रिया आदिके न होनेपर भी केवल लोकव्यवहारके लिये वैसा नाम रख देनेको नामनिक्षेप कहा जाता है जैसे किसी व्यक्तिका नाम लोकव्यवहारके लिये देवदत्त ( देवके द्वारा न दिये जानेपर भी) रख देना। काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और पांसोंके निक्षेप आदिमें 'वह यह है' इस प्रकारकी जो कल्पना की जाती है उसे स्थापनानिक्षेप कहते हैं । वह दो प्रकारका है-सद्भावस्थापनानिक्षेप और असद्भावस्थापनानिक्षेप । स्थाप्यमान वस्तुके आकारवाली किसी अन्य वस्तुमें जो उसकी स्थापना की जाती है इसे सद्भावस्थापनानिक्षेप कहा जाता है-जैसे ऋषभ जिनेन्द्रके आकारभूत पाषाणमें ऋषभ जिनेन्द्रकी स्थापना करना । जो वस्तु स्थाप्यमान पदार्थके आकारकी नहीं है फिर भी उसमें उस वस्तुकी कल्पना करनेको असद्भावस्थापनानिक्षेप कहा जाता है- जैसे सतरंजकी गोटोंमें हाथीघोड़े आदिकी कल्पना करना । भविष्यमें होनेवाली पर्यायकी प्रधानतासे वस्तुका कथन करना द्रव्यनिक्षेप पहलाता है। वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित वस्तुके कथनको भावनिक्षेप कहा जाता है। इस प्रकार इन पचनं.
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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