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________________ ~ ~ ~ पानन्दि-पञ्चविंशतिः [104:१-२०४ता नित्यं यन्मुमुक्षुर्यतिरमलमतिः शान्तमोहः प्रपश्ये जामीः पुत्रीः सवित्रीरिव हरिणदृशस्तत्परं ब्रह्मचर्यम् ॥ १०४॥ 105) अविरतमिह तावत्पुण्यभाजो मनुष्याः हदि विरचितरागाः कामिनीनां वसन्ति । कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदङ्ग्री प्रतिदिनमतिनम्रास्ते ऽपि नित्यं स्तुवन्ति ॥ १०५ ॥ 106) वैराग्यत्यागदारुद्वयकृतरचना चारुनिश्रेणिका यैः पादस्थानरुदारैर्दशभिरनुगता निश्चलैनिदृष्टेः । योग्या स्यादारुरुक्षोः शिवपदसदनं गन्तुमित्येषु केषां नो धर्मेषु त्रिलोकीपतिभिरपि सदा स्तूयमानेषु हृष्टिः ॥ १०६ ॥ नेमलबुद्धिः । पुनः किंलक्षणो यतिः । शान्तमोहः उपशान्तमोहः । यत्संगाधारं यासां स्त्रीणां संगाधारम् । एतत्संसारचक्रम् । लघु शीघेण । चलति । च पुनः । किंलक्षणं संसारचक्रम् । तीक्ष्णदुःखौघधार तीक्ष्णदुःखधारासहितम् । पुनः किंलक्षणं संसारचक्रम् । मृत्पिण्डीभूतभूतं मृतप्राणिपिण्डसदृशम् (१)। पुनः किंलक्षणं संसारचक्रम् । कृतबहुविकृतिभ्रान्ति कृतबहुविकारस्वरूपम् एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तम् ॥ १०४ ॥ इह जगति विषये । पुण्यभाजः मनुष्याः । कामिनीनां स्त्रीणाम् । हृदि । अविरतं निरन्तरम् । तावत् सदैव वसन्ति । पुनः येषां पुण्ययुक्तानाम् । हृदि।ताः विरचितरागाः । कामिन्यः स्त्रियः । जातु कदाचित्। कथमपि न वमन्ति। तेऽपि पुण्ययुक्ताः नराः। अतिनम्राः । तदशी तेषां मुनीनाम् अशी चरणौ। नित्यं स्तुवन्ति ॥१०५॥ इति एषु धर्मेषु । केषां जीवानां हृष्टिः हर्षः नो, अपि तु सर्वेषां जीवानां हर्षः। किंलक्षणेषु दशभेदधर्मेषु । त्रिलोकीपतिभिः इन्द्रधरणेन्द्रचक्रिभिः । सदा स्तूयमानेषु स्तुत्यमानेषु (2)। यैः दशभिः निश्चलैः उदारैः उत्कटैः पादस्थानैः कृत्वा । वैराग्यत्यागदारुद्वयकृतरचना चारुनिश्रेणिका अनुगता प्राप्ता । मनोज्ञा सा इयं निःश्रेणिका। शिवपदसदनं गृहम् । गन्तुम् । आरुरुक्षोः मुनेः चटितुमि रूप भ्रमको करनेवाला है, ऐसा यह संसाररूपी चक्र जिन स्त्रियोंके आश्रयसे शीघ्र चलता है उन हरिणके समान नेत्रवाली स्त्रियोंको मोहको उपशान्त कर देनेवाला मोक्षका अभिलाषी निर्मलबुद्धि मुनि सदा बहिन, बेटी और माताके समान देखे । यही उत्तम ब्रह्मचर्यका स्वरूप है । विशेषार्थ-यहां संसारमें चक्रका आरोप किया गया है । वह इस कारणसे-जिस प्रकार चक्र (कुम्हारका चाक) कीलके आधारसे चलता है उसी प्रकार यह संसारचक्र (संसारपरिभ्रमण) स्त्रियोंके आधारसे चलता है । चक्रमें यदि तीक्ष्ण धार रहती है तो इस संसारचक्रमें जो अनेक दुःखोंका समुदाय रहता है वही उसकी तीक्ष्ण धार है, कुम्हारके चक्रपर जहां मिट्टीका पिण्ड परिभ्रमण करता है वहां इस संसारचक्रपर समस्त देहधारी प्राणी परिभ्रमण करते हैं, तथा जिस प्रकार कुम्हारका चक्र घूमते हुए मिट्टीके पिण्डसे अनेक विकारोंको-सकोरा, घट, रांजन एवं कुंडे आदिकोउत्पन्न करता है उसी प्रकार यह संसारचक्र भी अनेक विकारोंको-जीवकी नरनारकादिरूप पर्यायोंकोउत्पन्न करके उन्हें घुमाता है । तात्पर्य यह है कि संसारपरिभ्रमणकी कारणभूत स्त्रियां हैं- तद्विषयक अनुराग है। उन स्त्रियोंको अवस्थाविशेषके अनुसार माता, बहिन एवं बेटीके समान समझकर उनसे अनुराग न करना; यह ब्रह्मचर्य है जो उस संसारचक्रसे प्राणीकी रक्षा करता है ॥ १०४ ॥ लोकमें पुण्यवान् पुरुष रागको उत्पन्न करके निरन्तर ही स्त्रियोंके हृदयमें निवास करते हैं। ये पुण्यवान् पुरुष भी जिन मुनियोंके हृदयमें वे स्त्रियां कभी और किसी प्रकारसे भी नहीं रहती हैं उन मुनियोंके चरणोंकी प्रतिदिन अत्यन्त नम्र होकर नित्य ही स्तुति करते हैं ॥ १०५ ॥ वैराग्य और त्यागरूप दो काष्ठखण्डोंसे निर्मित सुन्दर नसैनी जिन दस महान् स्थिर पादस्थानों (पैर रखनेके दण्डों) से संयुक्त होकर मोक्ष-महलमें जानेके लिये चढ़नेकी अभिलाषा रखनेवाले मुनिके लिये योग्य होती है तीन लोकोंके अधिपतियों ( इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती ) द्वारा
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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