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________________ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [99 : १-९९99) कषायविषयोगटप्रचुरतस्करोघो हठात् तपःसुभटताडितो विघटते यतो दुर्जयः। अतो हि निरुपद्रवश्चरति तेन धर्मश्रिया यतिः समुपलक्षितः पथि विमुक्तिपुर्याः सुखम् ॥ ९९ ॥ 100) मिथ्यात्वादेर्यदिह भविता दुःखमुग्रं तपोभ्यो जातं तस्मादुदककणिकैकेव सर्वाब्धिनीराद । स्तोकं तेन प्रभवमखिलं कृच्छ्रलब्धे नरत्वे यघेतर्हि स्खलति तदहो का क्षतिर्जीव ते स्यात् ॥ १० ॥ 101) व्याख्या यत् क्रियते श्रुतस्य यतये यहीयते पुस्तकं स्थानं संयमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा। पुनः । द्वादशधा । पुनः इदं तपः । जन्माम्बुधियानपात्रं संसारसमुद्रतरणे प्रोहणम् ॥ ९८ ॥ यतः यस्मात्कारणात् । कषायविषयोद्भटप्रचुरतस्करौघः कषायविषयचौरसमूहः । दुर्जयः दुर्जीतः(१)। हठाद्बलात् । तपःसुभटेन ताडितः कषायविषयचौरसमूहः । विघटते विनाशं गच्छति। अतः कारणात् । हि यतः। मुनिः । तेन तपसा । समुपलक्षितः संयुक्तः । पुनः धर्मश्रिया समुपलक्षितः युक्तः यतिः। विमुक्तिपुर्याः पथि मुक्तिमार्गे यथा स्यात्तथा। निरुपद्रवः उपद्रवरहितः। चरति गच्छति ॥ ९९ ॥ अहो इति संवोधने । भो जीव इह जगति विषये । यदि चेत् । मिथ्यात्वादेः सकाशात् । उग्रं दुःखं । भविता भविष्यति । इह जगति । तपोभ्यः स्तोकं दुःखम् । जातम् उत्पन्नम् । तपोभ्यः दुःखं का इव। सर्वाधिनीरात् समुद्र जलात् । एका उदककणिका इव जलकणिका इव । एतर्हि एतस्मिन् । कृच्छ्रलब्धे नरत्वे कष्टेन प्राप्ते मनुष्यपदे । अखिलं प्रभवम् । उत्पन्नं क्षमादिगुणं वर्तते। यदि एतस्मिन् नरत्वे स्खलसि तदा तव का हानिः का क्षतिः न स्यात् । अपि तु सर्वथा प्रकारेण हानिः स्याद्भवेत् । इति हेतोः नरत्वे तपः करणीयम् ॥१.०॥ सदाचारिणा मुनिना। यत् श्रुतस्य व्याख्या क्रियते । यत्पुस्तकं स्थानं संयमसाधनादिकं ममकारका त्याग करना । ६ ध्यान -चित्तको इधर उधरसे हटाकर किसी एक पदार्थके चिन्तनमें लगाना ॥ ९८ ॥ जो क्रोधादि कषायों और पंचेन्द्रियविषयोंरूप उद्भट एवं बहुत-से चोरोंका समुदाय बड़ी कठिनता से जीता जा सकता है वह चूंकि तपरूपी सुभटके द्वारा बलपूर्वक ताड़ित होकर नष्ट हो जाता है, अत एव उस तपसे तथा धर्मरूप लक्ष्मीसे संयुक्त साधु मुक्तिरूपी नगरीके मार्गमें सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित होकर सुखपूर्वक गमन करता है । विशेषार्थ- जिस प्रकार चोरोंका समुदाय मार्गमें चलनेवाले पथिक जनोंके धनका अपहरण करके उनको आगे जानेमें बाधा पहुंचाता है उसी प्रकार क्रोधादि कषायें एवं पंचेन्द्रियविषयभोग मोक्षमार्गमें चलनेवाले सत्पुरुषोंके सम्यग्दर्शनादिरूप धनका अपहरण करके उनके आगे जानेमें बाधक होता है। उपर्युक्त चोरोंका समुदाय जिस प्रकार किसी शक्तिशाली सुभटसे पीड़ित होकर यत्र तत्र भाग जाता है उसी प्रकार तपके द्वारा वे विषय-कषायें भी नष्ट कर दी जाती हैं । इसीलिये चोरोंके न रहनेसे जिस प्रकार पथिक जन निरुपद्रव होकर मार्गमें गमन करते हैं उसी प्रकार विषय-कषायोंके नष्ट हो जानेसे सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे सम्पन्न साधु जन भी निर्बाध मोक्षमार्गमें गमन करते हैं ॥ ९९ ॥ लोकमें मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे जो तीव्र दुःख प्राप्त होनेवाला है उसकी अपेक्षा तपसे उत्पन्न हुआ दुःख इतना अल्प होता है जितनी कि समुद्रके सम्पूर्ण जलकी अपेक्षा उसकी एक बूंद होती है। उस तपसे सब कुछ (समता आदि ) आविर्भूत होता है। इसीलिये हे जीव ! कष्टसे प्राप्त होनेवाली मनुष्य पर्यायके प्राप्त हो जानेपर भी यदि तुम इस समयं उस तपसे भ्रष्ट होते हो तो फिर तुम्हारी कौन-सी हानि होगी, यह जानते हो? अर्थात् उस अवस्थामें तुम्हारा सब कुछ ही नष्ट हो जानेवाला है ।। १०० ॥ सदाचारी पुरुषके द्वारा मुनिके लिये जो प्रेमपूर्वक आगमका व्याख्यान किया जाता है, पुस्तक दी जाती है, तथा १श पुनः पुनः।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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