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________________ -98:१-९८] १.धर्मोपदेशामृतम् प्राप्ते ते अतिनिर्मले अपि परं स्यातां न येनोज्झिते स्वर्मोक्षेकफलप्रदे स च कथं न श्लाघ्यते संयमः ॥९७ ॥ 98) कर्ममलविलयहेतोर्बोधदशा तप्यते तपः प्रोक्तम् । तद् धा द्वादशधा जन्माम्बुधियानपात्रमिदम् ॥ ९८ ॥ भाप्तवचःश्रुतेः सकाशात् स्थितिः दुर्लभा । तस्याः स्थितेः । च पुनः । हम्बोधने दुर्लमे। ते द्वे अपि इग्बोधने अतिनिर्मले प्राप्त सति । येन संयमेन । उझिते द्वे । परम् । स्वर्मोक्षकफलप्रदे । न स्याता न भवेताम् । च पुनः। स संयमः कथं न श्लाघ्यते। . अपि तु श्लाघ्यते ॥ ९७ ॥ तत् तपः प्रोक्तम् । यत्तपः । बोधदृशा ज्ञाननेत्रेण । कर्ममलविलयहेतोः तप्यते । इदं तपः द्वेधा । च मिलना कठिन है, उत्तम जाति आदिके प्राप्त हो जानेपर जिनवाणीका श्रवण दुर्लभ है, जिनवाणीका श्रवण मिलनेपर भी बड़ी आयुका प्राप्त होना दुर्लभ है, तथा उससे भी दुर्लभ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान हैं । यदि अत्यन्त निर्मल वे दोनों भी प्राप्त हो जाते हैं तो जिस संयमके विना वे स्वर्ग एवं मोक्षरूप अद्वितीय फलको नहीं दे सकते हैं वह संयम कैसे प्रशंसनीय न होगा ? अर्थात् वह अवश्य ही प्रशंसाके योग्य है ॥९७॥ सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले साधुके द्वारा जो कर्मरूपी मैलको दूर करनेके लिये तपा जाता है उसे तप कहा गया है । वह बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका तथा अनशनादिके भेदसे बारह प्रकारका है। यह तप जन्मरूपी समुद्रसे पार होनेके लिये जहाजके समान है ॥ विशेषार्थ-जो कर्मोंका क्षय करनेके उद्देशसे तपा जाता है उसे तप कहते हैं । वह बाह्य और अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है । जो तप बाह्य द्रव्यकी अपेक्षा रखता है तथा दूसरोंके द्वारा प्रत्यक्षमें देखा जा सकता है वह बाह्य तप कहलाता है। उसके निम्न छह भेद हैं । १ अनशन - संयम आदिकी सिद्धिके लिये चार प्रकारके (अन्न, पेय, खाद्य और लेह्य ) के आहारका परित्याग करना । २ अवमौदर्य - बत्तीस ग्रास प्रमाण स्वाभाविक आहारमेंसे एक-दो-तीन आदि ग्रासोंको कम करके एक ग्रास तक ग्रहण करना । ३ वृत्तिपरिसंख्यान-गृहप्रमाण तथा दाता एवं भाजन आदिका नियम करना । गृहप्रमाण-जैसे आज मैं दो घर ही जाऊंगा । यदि इनमें आहार प्राप्त हो गया तो ग्रहण करूंगा, अन्यथा (दोसे अधिक घर जाकर ) नहीं । इसी प्रकार दाता आदिके विषयमें मी समझना चाहिये । ४ रसपरित्याग- दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक इन छह रसोंमेंसे एक-दो आदि रसोंका त्याग करना अथवा तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल और मधुर रसोंमेंसे एक-दो आदि रसोंका परित्याग करना । ५ विविक्तशय्यासन ---- जन्तुओंकी पीड़ासे रहित निर्जन शून्य गृह आदिमें शय्या (सोना) या आसन लगाना । ६ कायक्लेश-धूप, वृक्षमूल अथवा खुले मैदानमें स्थित रहकर ध्यान आदि करना । जो तप मनको नियमित करता है उसे अभ्यन्तर तप कहते हैं । उसके भी निम्न छह भेद हैं । १ प्रायश्चित्तप्रमादसे उत्पन्न हुए दोषोंको दूर करना। २ विनय --- पूज्य पुरुषों में आदरका भाव रखना । ३ वैयावृत्य -- शरीरकी चेष्टासे अथवा अन्य द्रव्यसे रोगी एवं वृद्ध आदि साधुओंकी सेवा करना । ४ स्वाध्याय - आलस्यको छोड़कर ज्ञानका अभ्यास करना । वह वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेशके भेदसे पांच प्रकारका है- १ निर्दोष ग्रन्थ, अर्थ और दोनोंको ही प्रदान करना इसे वाचना कहा जाता है । २ संशयको दूर करनेके लिये दूसरे अधिक विद्वानोंसे पूछनेको पृच्छना कहते हैं । ३ जाने हुए पदार्थका मनसे विचार करनेका नाम अनुप्रेक्षा है। ४ शुद्ध उच्चारणके साथ पाठका परिशीलन करनेका नाम आम्नाय है । ५ धर्मकथा आदिके अनुष्ठानको धर्मोपदेश कहा जाता है । ५ व्युत्सर्ग--- अहंकार और
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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