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________________ पभनन्दि-पञ्चविशतिः [74:१-७४भवदवगमशाखश्चारुचारित्रपुष्पस्तरमृतफलेन प्रीणयत्याशु भव्यम् ॥ ७३ ॥ 74) गवगमचरित्रालंकृतः सिद्धिपात्रं लघुरपि न गुरुः स्यादन्यथात्वे कदाचित् । स्फुटमवगतमार्गो याति मन्दोऽपि गच्छन्नभिमतपदमन्यो नैव तूर्णो ऽपि जन्तुः ॥ ७४ ॥ 75) वनशिखिनि मृतोऽन्धः संचरन् वाढमद्मिद्वितयविकलमूर्तिर्वीक्षमाणो ऽपि खञ्जः। अपि सनयनपादो ऽश्रद्दधानश्च तस्माद्दगवगमचरित्रैः संयुतैरेव सिद्धिः ॥ ७५॥ सदम्भःसारिणीसिक्तमुच्चैः तु पुनः अशङ्काआदिअष्टगुणाः सत्समीचीना एव अम्भःसारणी' जलधोरिणी तया सिक्तं सिञ्चितम् उच्चैः आतिशयेन । तरुः अमृतफलेन । आशु शीघ्रमा भव्य प्रीणयति पोषयति । किंलक्षणस्तरुः । चारुचारित्रपुष्पः । भव्यम् अमृतफलेन मोक्षफलेन पोषयति । पुनः किंलक्षणस्तरुः । भवदवगमशाखः । भवद् उत्पद्यमानः अवगमः ज्ञानं तदेव शाखा यस्य सः ॥ ७३ ॥ कश्चिन्मुनिः लघुरपि तथा शिष्योऽपि यदि दृगवगमचरित्रालङ्कतो दर्शनज्ञानचारित्रसहितः। सिद्धिपात्रं स्याद्भवेत् । अन्यथात्वे गुरुः गरिष्ठोऽपि दर्शनज्ञानचारित्ररहितः सिद्धिपात्रं न स्यात् मोक्षमोक्का न भवति । तत्र दृष्टान्तमाह । स्फुटं प्रगटम् । अवगतमार्गः ज्ञातमार्गः । जन्तुः जीवः । मन्दोऽपि गच्छन् मन्दं मन्दं गच्छन् । अभिमतपदं याति अभिलषितपदं याति । अन्यः अज्ञातमार्गः जीवः । तूर्णोऽपि गच्छन् शीघ्रगमनसहितः । अभिमतपदं न याति गच्छति न ॥ ७४ ॥ अन्धः । वनशिखिनि दवानौ । मृतः । किंलक्षणोऽन्धः । बाढम् अतिशयेन । संचरन् गच्छन्। पुनः खनः पहुः वनशिखिनि मृतः। किंलक्षणः खजः । वीक्षमाणोऽपि अवलोकमानोऽपि । पुनः किंलक्षणः खनः । अझिद्वितयविकलमूर्तिः चरणरहितः। च पुनः । सनयनपादः पुमान् वनशिखिनि मृतः । किंलक्षणः सनयनपादः । अश्रद्दधानः आलस्यसहितः । तस्मात्कारणात् । दृगवगमचरित्रैः नदीके द्वारा अतिशय सींचा जाकर उत्पन्न हुई सम्यग्ज्ञानरूपी शाखाओं और मनोहर सम्यक्चारित्ररूपी पुप्पोंसे सम्पन्न होता हुआ वृक्षके रूपमें परिणत होता है, जो भव्य जीवको शीघ्र ही मोक्षरूपी फलको देकर प्रसन्न करता है ॥ ७३ । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रसे विभूषित पुरुष यदि तप आदि अन्य गुणोंमें मन्द भी हो तो भी वह सिद्धिका पात्र है, अर्थात् उसे सिद्धि प्राप्त होती है। किन्तु इसके विपरीत यदि रत्नत्रयसे रहित पुरुष अन्य गुणोंमें महान् भी हो तो भी वह कभी भी सिद्धिको प्राप्त नहीं हो सकता है। ठीक ही है- स्पष्टतया मार्गसे परिचित व्यक्ति यदि चलनेमें मन्द भी हो तो भी वह धीरे धीरे चलकर अभीष्ट स्थानमें पहुंच जाता है । किन्तु इसके विपरीत जो अन्य व्यक्ति मार्गसे अपरिचित है वह चलनेमें शीघ्रगामी होकर भी अभीष्ट स्थानको नहीं प्राप्त हो सकता है ॥ ७४ ॥ दावानलसे जलते हुए वनमें शीघ्र गमन करनेवाला अन्धा मर जाता है, इसी प्रकार दोनों पैरोंसे रहित शरीवाला लंगड़ा मनुष्य दावानलको देखता हुआ भी चलनेमें असमर्थ होनेसे जलकर मर जाता है, तथा अग्निका विश्वास न करनेवाला मनुष्य मी नेत्र एवं पैरोंसे संयुक्त होकर मी उक्त दावानलमें भस्म हो जाता है। इसीलिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके एकताको प्राप्त होनेपर ही उनसे सिद्धि प्राप्त होती है। ऐसा निश्चित समझना चाहिये । विशेषार्थ-जिस प्रकार उक्त तीनों मनुष्योंमें एक व्यक्ति तो आंखोंसे अग्निको देखकर और भागनेमें समर्थ होकर भी केवल अविश्वासके कारण मरता है, दूसरा (अन्धा) व्यक्ति अग्निका परिज्ञान न हो सकनेसे मृत्युको प्राप्त होता है, तथा तीसरा ( लंगड़ा ) व्यक्ति अग्निपर भरोसा रखकर और उसे जानकर मी चलनेमें असमर्थ होनेसे ही मृत्युके मुखमें प्रविष्ट होता है। उसी प्रकार ज्ञान और चारित्रसे रहित जो प्राणी तत्त्वार्थका केवल श्रद्धान करता है, श्रद्धान और आचरणसे रहित जिसको एक मात्र तत्त्वार्थका परिज्ञान ही है, अथवा श्रद्धा और ज्ञानसे रहित जो जीव केवल चारित्रका ही परिपालन करता है। इन तीनोंमेंसे किसीको मी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। वह तो इन तीनोंकी १भश सत् समीचीन स एव अम्मः, २ अ सारिणी। ३ क धारिणी। ४मश अन्यथा । ५श ज्ञातमार्गः जीवः ।
SR No.020961
Book TitlePadmanandi Panchvinshti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Siddhantshastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year2001
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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