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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री व्यवहार सूत्रम् द्वितीय उद्देशकः ५२९ (B) गीतार्थानां त्रयाणां विहारः समाप्तकल्पो जघन्यो भवति। उत्कृष्टस्त्वेष समाप्तकल्पो द्वात्रिंशत् सहस्राणि भवन्ति ॥९९५ ॥ तिण्ह समत्तो कप्पो, जहण्णओ दोण्णि ऊ जया विहरे। गीयत्थाण वि लहुओ, अगीए गुरुगा इमे दोसा ॥ ९९६॥ त्रयाणां किल समाप्तकल्पो जघन्यो भवति ततो यदा द्वौ विहरतस्तदा द्वयोर्गीतार्थयोर्विहरतोर्लघुका मासाः प्रायश्चित्तम्। अगीतार्थयोश्चत्वारो गुरुकाः। द्वयोश्च विहरतो इमे वक्ष्यमाणा दोषाः ॥९९६ ॥ तानेवाह दोण्हवि विहरंताणं, सलिंग-गिहिलिंग-अन्नलिंगे य। होइ बहुदोस वसही, गिलाणश्मरणे२ य सल्ले३ य ॥ ९९७ ॥ द्वयोर्विहरतोः स्वलिङ्गा-ऽन्यलिङ्ग-गृहिलिङ्गानधिकृत्य भूयांसो दोषाः। तद्यथा-एको १. एतद् ९९७ गाथाननन्तरं लाडनूसंस्करणे (गा.१०१४) एषा गाथोपलभ्यते- 'एगस्स सलिंगादी वसहीए हिंडतो य साणाही । दोसा दोण्ह वि हिंडतगाण वसधीय होति इमे ॥१०१४।। जेभा. खंभा. प्रत्योरपि प्राय एवम् ॥ गाथा ९९१-९९७ द्विविधः विहारः समाप्तकल्पऽसमाप्त कल्परूपः ५२९ (B) For Private and Personal Use Only
SR No.020935
Book TitleVyavahar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2010
Total Pages582
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vyavahara
File Size17 MB
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