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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री व्यवहारसूत्रम् तृतीय उद्देशकः ७५८ (B) एवमजापालक इव श्रीगृहिकोऽपि द्रष्टव्यः । स चैवं- कोइ सिरिघरिओ भतीए सिरिघरं पालेइ। अन्नया तेण केइ गंगं संपट्ठिता दिट्ठा, पुच्छिया- 'कहिं वच्चह?' तेहिं कहियं'गंगाए'। ततो सो अणापुच्छित्ता तेहिं समं गंगं गतो। पच्छा सिरिघरं सुन्नं लोगेण विलुत्तं।। सो गंगाए ण्हाएत्ता पडियागतो पुणो रक्खामित्ति सिरिघरं मग्गति, ताहे सो सिरिघरसामिणा | बंधित्ता जं सिरिघरे पणटुं तं दवावितो, न य पुणो लभति रक्खिउं मग्गंतो वि। एष दृष्टान्तः। * अत्रोपनयमाह- एवं तु इत्यादि। एवमेव तुः अवधारणे गणादिकस्य अनिक्षिप्ते अनिक्षेपे |* कृते, भावे क्तप्रत्ययविधानात् तत्प्रत्ययं गणाधनिक्षेपेण मैथुनसमाचरणप्रत्ययं स गणावच्छेदकादिः यावज्जीवं न लभते गणमिति।।१५९७ ॥ तदेवमनिक्षेपविषये सूत्रद्विके दृष्टान्तद्विकमुक्तम्। एतदेव दृष्टान्तद्विकं निक्षेपविषयेऽपि सूत्रद्विके योजनीयम्।। तच्चैवं अन्नो अजापालगो अजातो रक्खति, तेण कप्पडियादी अन्नया गंगं संपट्ठिया दिट्ठा। सूत्र १८ गाथा १५९७-१५९८ भिक्षोः पदयोग्याऽयोग्यता ७५८ (B) १. “घरमेति। ताहे - वा. पु. मु.॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020935
Book TitleVyavahar Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2010
Total Pages582
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vyavahara
File Size17 MB
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