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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kalassagarsun Gyanmande AN व्याख्या प्रवतिः // 1.18 |११शतके | उद्देश:१२ 1018 // RECSAKAL [प्र०] हे भगवन् ! सौधर्मकल्पमा वर्णसहित अने वर्णरहित द्रव्यो छे ?-इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न. [उ.] हे गौतम ! हा, छे. प्रमाणे यावद् ईशान देवलोकमां पण जाणवू. ते प्रमाणे यावद् अच्युतमा, ग्रैवेयकविमानमां, अनुत्तरविमानमां अने ईपत्यागभारा पृथिवीमा (सिद्धशिलामां ) पण वर्णसहित अने वर्णरहित द्रव्यो छे. त्यार बाद ते अत्यन्त मोटी परिषद् यावद् विसर्जित थई. पछी आलभिका नगरीमां शृंगाटक, त्रिक-विगेरे मार्गोमा घणा माणसोने एम कहे के इत्यादि शिव राजर्षिनी पेठे कडेवु, यावत् ते सर्व दुःखथी रहित थया. परन्तु विशेष ए के के, त्रिदंड, कुंडिका यावद् मेरुथी रंगेला वस्त्रने पहेरी विभंगज्ञान रहित थयेलो ते पुद्गल परिव्राजक आलभिका नगरीनी बच्चे थईने नीकळे छे. नीकळीने यावद् उत्तरपूर्व (ईशान ) दिशा तरफ जइ स्कंदकनी पेठे ते पुद्रल परिवाजक त्रिदंड, कुंडिका यावद् मूकी प्रव्रजित थाय छे. बाकी बधु शिवराजर्षिनी पेठे यावद् 'सिद्धो अन्यानाध अने शाश्वत सुखने अनुभवे जे त्यांसुधी जाणवं. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावद् भगवान् गौतम विहरे छे. // 436 // भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना 11 मा शतकमां बारमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. // इति एकादश सयं समत्तं // + 4 + For Private and Personal Use Only
SR No.020923
Book TitleVyakhyapragnapti Sutra Part 04
Original Sutra AuthorSudharmaswami
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages238
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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