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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शक्ति-निरूपण २७ सति द्विष्ठत्वे च सति आश्रयतया विशिष्ट-बुद्धि-नियामकः, इति अभियुक्त-व्यवहाराद् यथा 'घटवद् भूतलम्' इत्यादौ 'संयोग'-रूपः सम्बन्धः सम्बन्धिभ्यां भिन्नः द्विष्ठः 'घटनिरुपितसंयोगाश्रयो भूतलम्' इति विशिष्टबुद्धि-- नियामकश्च । नात्र तथा 'घटशब्द इच्छावान्' 'तदर्थों वा इच्छावान्' इति व्यवहारः । नयायिकों की यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि इच्छा दो सम्बन्धियों (शब्द तथा अर्थ) में प्राश्रयता (प्राधाराधेयभाव) का परिचायक नहीं है, इसलिये वह सम्बन्ध नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि "दोनों सम्बन्धियों से भिन्न होते हुए तथा दोनों सम्बन्धों में पाश्रित होते हुए, पाश्रयता रूप से विशिष्ट-बुद्धि (विशेष्य विशेषण तथा दोनों के सम्बन्ध विषयक ज्ञान) का जो नियामक होता है, वह 'सम्बन्ध' कहलाता है' यह (सम्बन्ध के विषय में) विद्वानों का विचार है। जैसे 'घड़े से युक्त भूमि है' इत्यादि में संयोग रूप सम्बन्ध दो सम्बन्धियों (घड़ा तथा भूतल) से भिन्न है, दोनों में रहता है तथा 'घट से निरूपित (ज्ञात) संयोग का आधार भूमि है' इस प्रकार की विशिष्ट बुद्धि (ज्ञान) का नियामक (ज्ञापक) है। यहां (शब्द तथा अर्थ के विषय में) वैसा (उपयुक्त), 'घट शब्द इच्छा-युक्त है' या 'घट शब्द का अर्थ इच्छा-युक्त है' इस प्रकार का व्यवहार नहीं देखा जाता। नैयायिकों ने इश्वरेच्छा को ही 'शक्ति' तथा पद और पदार्थ का 'सम्बन्ध' माना है। यहाँ नागेश भट्ट ने ईश्वरेच्छा को सम्बन्ध मानने की बात का खण्डन किया है, क्योंकि ईश्वरेच्छा को पद-पदार्थ का सम्बन्ध' मानने से पूर्व यह सिद्ध करना यावश्यक है कि यह ईश्वरेच्छा दो सम्बन्धियों (शब्द तथा अर्थ) में रहने वाला 'सम्बन्ध' है । यहाँ यह सिद्ध नही हो पाता कि ईश्वरेच्छा 'सम्बन्ध' है क्यों कि 'सम्बन्ध' के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने से सम्बद्ध दो सम्बन्धियों में रहता हुआ भी दोनों से भिन्न रहे तथा दोनों सम्बन्धियों के सम्बन्ध को प्रकट करे । तुलना करोसम्बन्धो हि सम्बन्धिभ्यां भिन्नो भवति उभयसम्बन्ध्याश्रितश्चैकश्च (तर्कभाषा अभाव-निरूपण) । परन्तु यहाँ इच्छा न तो शब्द में है, न अर्थ में है और न ही वह किसी प्रकार के आधार-प्राधेय-भाव को बताती है । इसलिये ईश्वरेच्छा को सम्बन्ध' नहीं माना जा सकता। [वैयाकरणों के मत में शक्ति का स्वरूप] तस्माद् पदपदार्थयोः सम्बन्धान्तरम् एव शक्तिः वाच्यवाचकभावापरपर्याया। तद्ग्राहक चेतरेतराध्यासमूलक १. ह.-अध्यासमूलम् । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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