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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २६ वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा हैं, जहाँ किसी प्रकार की कोई 'ईश्वरेच्छा' नहीं दिखाई देती। इसके अतिरिक्त अपभ्रश शब्दों में 'शक्ति' कैसे मानी जाय । मीमांसकों की दृष्टि में ईश्वरेच्छा को शक्ति मानने का कोई अर्थ ही नहीं है क्यों कि वे ईश्वर को मानते ही नहीं । द्र० - एवम् ईश्वरसंकेतस्य शक्तित्वे ईश्वरानंगीकारमते शब्दबोधानुपपत्तेः (शक्तिवाद, पृ० ७) । www.kobatirth.org शक्तेद्यपि नातिप्रसंग : यहाँ यह शंका की गई है कि जब 'शक्ति' के विषय पद, अर्थ तथा बोध तीनों ही हैं, तो फिर पद ही अर्थ का वाचक है तथा अर्थ वाच्य है, इस प्रकार की व्यवस्था कैसे बनेगी ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वस्तुतः शक्ति के विषय तो पद, जन्य - जनकभाव तथा बोध इत्यादि भी हैं, (द्रष्टव्य-तस्याश्च यद्यपि विषयत्वलक्षणः सम्बन्धः पदे, अर्थे जन्य-जनक - भावे बोधे च, लम०, पृ० १६), परन्तु शाब्दबोध का जनक होने के कारण पद वाचक है तथा बोध का विषय होने के कारण ग्रंथ वाच्य है । इस प्रकार यह व्यवस्था सुसङ्गत हो जाती है । यद्यपि प्रथमं ' इत्याहुः - - यहाँ दूसरी शंका यह प्रस्तुत की गई कि वाचक पद में 'शक्ति' का सम्बन्ध कैसे माना जाय ? क्यों कि पहले-पहल बच्चे को जो अर्थ का ज्ञान होता है, वह पूरे वाक्य द्वारा होता है-वाक्य के भिन्न-भिन्न पदों द्वारा नहीं । वह 'गाम् श्रानय' तथा 'अश्वं नय' इस प्रकार के पूरे-पूरे वाक्य से अर्थ का ज्ञान करता है, उसे एकएक पद का अलग-अलग अर्थ ज्ञान नहीं होता । इसलिये पृथक्-पृथक् पदों में 'शक्ति' की स्थिति नहीं माननी चाहिये । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस आशंका का उत्तर यह दिया गया कि यह तो ठीक है कि वाक्य से अर्थ का बोध होता है परन्तु 'श्रावाप' तथा 'उद्वाप' अर्थात् ग्रहरण तथा परित्याग, जिनकी कल्पना प्रायः सभी शास्त्रकारों ने की है, के ग्राधार पर पदों में 'शक्ति' की स्थिति मान ली जाती है । 'गाम् आनय' इस वाक्य में 'गाम्' पद का ग्रहण किया गया तथा 'अश्वम्' प्राय' में उस 'गाम्' पद का परित्याग कर दिया गया । अनेक बार किये गये इस प्रकार के ग्रहरण, परित्याग के आधार पर 'गाम्' तथा 'अश्वम्' आदि पदों के अर्थों का भी निर्धारण कर लिया गया । इसलिये प्रत्येक पद में भी 'शक्ति' का सम्बन्ध माना जाता है । [ नैयायिकों के मत का खण्डन ] १. यहाँ एक और आशंका यह हो सकती है कि जब नैयायिक विद्वान् वैयाकरणों के समान वाक्य की अखण्डता को स्वीकार नहीं करते तो वे पदों के अर्थों को कल्पित क्यों मानते हैं । इसका समाधान नैयायिक यह देते हैं कि न्याय - भाष्यकार वात्स्यायन - पदसमूहो वाक्यम् प्रर्थसमाप्तौ (न्या० भाष्य ११५५ ) - —यह कथन इस बात को स्पष्ट कर देता है कि अर्थ की परिसमाप्ति वाक्य में ही होती है । अतः नैयायिक भी वाक्य में पदों के विभाग की कल्पना करके उन उन पदों के अर्थों का निर्धारण करता ही है, क्योंकि, इनके मत में भी वास्तविक अर्थ तो वाक्य का ही होता है । का - तन्न । इच्छायाः सम्बन्धिनोराश्रयता - नियामकत्वाभावेनसम्बन्धत्वासम्भवात् । सम्बन्धो हि सम्बन्धि-द्वय - भिन्नत्वे यह पूरा वाक्य हस्तलेखों तथा वंशीधर मिश्र के संस्करण में नहीं मिलता । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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