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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बत्तीस (घ) वैभूसा० (पृ० १५८-१६१) पलम० (पृ० २५५-५७) विधिः निमन्त्रणम्''आमन्त्रणम् .. विध्यादिचतुष्टयस्यानुस्यूतप्रवर्तनात्वेन अधीष्ट “एतच्चतुष्टयानुगतप्रवर्त्तनात्वेन चतुर्णां वाच्यता लाघवात् । तदुक्तं वाच्यता लाघवात् । उक्तं च -- हरिणा -"अस्ति प्रवर्त्तनारूपं.. भेदस्य "अस्ति प्रवर्त्तनारूपम् अनुस्यूतं चतुर्ध्वपि । विवक्षया ।" तत्रैव लिङ् विधातव्य:किम्भेदस्य विवक्षया ॥" प्रवर्तनात्वं च प्रवृत्तिजनकज्ञान- प्रवर्तनात्वं च प्रवृत्तिजनकज्ञानविषयतावच्छेदकत्वम् । तच्चेष्टसाधन- विषयतावच्छेदकत्वम्। तच्चेष्टसाधनत्वस्यास्ति इति तदेव विध्यर्थः । यद्यप्येत- त्वस्यैवेति तदेव लिङर्थः । न तु कृतिस्कृतिसाध्यत्वस्यापि तज्ज्ञानस्यापि प्रवर्त- साध्यत्वम्, तस्य यागादौ लोकत एव कत्वात, तथापि यागादौ सर्वत्र तल्लोकत लाभाद्, इत्यन्यलभ्यत्वात् । न च बलवदएवावगम्यते इत्यनन्यलभ्यत्वात् न तच्छ- निष्टाननुबन्धित्वं द्वषभावेनान्यथाक्यम् । बलवदनिष्टाननुबन्धित्वज्ञानञ्च सिद्धत्वात् । न हेतुः द्वषभावेनान्यथासिद्धत्वात् । (ङ) वंभूसा० (१६४) पलम० (पृ० २६०) वर्तमानध्वंसप्रतियोगित्वं भूतत्वम् । भूतत्वं च वर्तमानध्वंसप्रतियोगिकियो पलक्षितत्वम् । पलम० के अन्तिम दो प्रकरण-'नामार्थ' तथा 'समासादिवृत्त्यर्थ'--तो वैभूसा. के 'नामार्थनिर्णय' तथा 'समासशक्तिनिर्णय' नामक प्रकरणों के अभिन्न संक्षेप मात्र हैं। इन दोनों प्रकरणों के नाम भी पलम० के ग्रन्थकार ने वैभूसा० के सम्बद्ध प्रकरणों के नाम पर ही रखे हैं। वैसिलम० में इन प्रकरणों के नाम क्रमशः 'प्रतिपदिकार्थनिर्णय' तथा 'वृत्तिविचार' हैं। वैसिलम० के 'वृत्ति-विचार' प्रकरण में ६ प्रमुख खण्ड हैं जिनमें वृत्ति के क्रमशः 'एकार्थीभाव', प्रधान समास, 'एक शेष', 'क्यजाद्यन्त', 'तद्धित-प्रत्ययार्थ' तथा 'वीप्सा', इन विविध प्रकारों अथवा भेदों के विषय में विचार किया गया है । पलम० में ये विचार नहीं मिलते। वैभूसा० के 'समासशक्तिनिर्णय' नामक प्रकरण की अभिन्न, परन्तु किसी सीमा तक संक्षिप्त, प्रतिलिपि अवश्य वहां उपलब्ध है। कुछ स्थल ऐसे भी हैं जहां वैभूसा० के ग्रन्थकार कौण्डभट्ट ने अपने विवेचन अथवा प्रतिपादन की पुष्टि के लिये अपने दूसरे ग्रन्थ वैयाकरणभूषण को प्रमाण के रूप में उद्धत किया है। इन स्थलों की प्रतिलिपि करते समय पलम० का ग्रन्थकार इतना सजग है कि वह वैयाकरणभूषण का नाम जान बूझ कर छोड़ जाता है, यद्यपि ऐसे स्थल एक दो ही हैं। १. द्र० वभूसा०, पृ० २८८3; (क) तस्य नियमार्थताया भाष्यसिद्धाया वयाकरणभूषणे स्पष्टं प्रतिपादितत्वात । तुलना करो-पलम० (पृ० ४१८) तस्य नियमार्थताया भाष्यकतैव प्रतिपादितत्वात् । (ख) भूसा०, ५० ३०७; नान्त्यः' 'प्रपंचितं गैयाकरणभूषणे । तुलना करो-पलम० (प० ४२६) नान्त्यः ।.'इत्यन्वय प्रसंगात् । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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