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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैयाकरण-सिद्धांत-परम-लघु-मजूष। यदि 'उदक' को 'कर्ता' मान कर उसका 'प्राप्ति' क्रिया में अन्वय किया गया तो अभेद-सम्बन्ध न होने के कारण उपर्युक्त न्याय का उल्लंघन होगा। साथ ही "नामार्थयोर् भेदेन साक्षाद् अन्वयोऽव्युत्पन्नः", अर्थात् दो प्रातिपदिकार्थों का भेद सम्बन्ध से अन्वय साक्षात् नहीं होता अपितु किसी भिन्न विभक्ति की सहायता से ही होता है, इस न्याय का भी उल्लंघन होता है क्योंकि यहाँ 'प्राप्तोदक:' पद में भिन्न विभक्ति के बिना ही भेद सम्बन्ध की उपस्थिति करायी जा रही है । द्रष्टव्य - "प्राप्ति-कर्बभिन्नम् उदकम्' इत्यादि-बोधोत्तरं तत्-सम्बन्धि-ग्राम-लक्षणायाम् अपि 'उदक-कर्तृक-प्राप्ति-कर्म-ग्रामः' इत्यर्थालाभात् 'प्राप्त' इति 'क्त'-प्रत्ययस्यैव कर्बर्थक स्य कर्मणि लक्षणा चेत् तर्हि 'समानाधिकरण-प्रातिपदिकार्थयोर् अभेदान्वय'व्युत्पत्ति-भंगापत्तेः । 'प्राप्तेः' धात्वर्थतया कर्तृता-सम्बन्धेन उदकस्य तत्रान्वयासम्भवाच्च"। (वभूसा० पृ० २७२)। नामार्थक-प्रकारक'..... - इत्यलम् :-- इसके अतिरिक्त "नामार्थप्रकारक-शाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति विभक्त्यर्थोपस्थितेः कारणत्वम्' (जिसमें 'प्रातिपदिकार्थ' विशेषण हो ऐसे शब्दबोध के प्रति विभक्ति के अर्थ का ज्ञान ही कारण बनता है) इस न्याय का भी विरोध व्यपेक्षावादी की उपर्युक्त प्रक्रिया में होता है क्योंकि यहाँ "उदक है 'कर्ता' जिसमें ऐसी 'प्राप्ति' इस शाब्द बोध में 'उदक' रूप 'प्रातिपदिक' का अर्थ 'जल' विशेषण के रूप में विद्यमान है। इसलिये यह आवश्यक है कि इस 'प्रातिपदिकार्थ-प्रकारक' ('प्रातिपदिकार्थ' जिसमें 'प्रकार' अर्थात् विशेषण है) शाब्दबोध की संगति के लिये षष्ठी जैसी किसी विभक्ति का प्रयोग किया जाय । 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य में ये दोष नहीं पाते क्योंकि वहाँ तो 'वृत्ति' के प्रयोगों में पद के विविध अवयवों में अर्थाभिधान की शक्ति मानी ही नहीं जाती। इसके विपरीत इस सिद्धान्त में यह माना जाता है कि अवयव-विशिष्ट समुदाय ही अवयवार्थ-विशिष्ट समुदायार्थ का वाचक है। इसलिये यहाँ दो 'प्रातिपदिकार्थों' की उपस्थिति की बात ही नहीं बनती । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इस 'एकार्थीभाव' सामर्थ्य के सिद्धान्त में किसी प्रकार की कोई अनुपपत्ति नहीं है। इसलिये वैयाकरणों को यही पक्ष अभिमत है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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