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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२२ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा यह बात सत्य है परन्तु प्रत्येक वर्ण में ('प्रातिपदिक') संज्ञा के निवारणार्थ 'अर्थवत्' इस (विशेषण) के आवश्यक होने के कारण (समास की अर्थवत्ता के अभाव में) समास में ('प्रातिपदिक' संज्ञा की) अव्याप्ति पूर्ववत् ही है। इस प्रकार (समास-युक्त शब्दों की) 'प्रातिपदिक' संज्ञारूप कार्य (समास को) अर्थवत्ता(रूप कारण) का अनुमान कराता है । समास अर्थवान् है, 'प्रातिपदिक' संज्ञा होने के कारण, जो अर्थवान् नहीं है वह 'प्रातिपदिक' नहीं है, ('अनुकार्य' तथा 'अनुकरण' के) 'अभेद'-पक्ष में 'भू सत्तायाम्' इत्यादि में 'अनुकरण' ('भू ) के समान। अथ..." इति चेत् :-- इन पंक्तियों में पूर्वपक्षी ने समास के प्रयोगों को विशिष्ट अर्थवत्ता से युक्त माने बिना ही उनकी 'प्रातिपदिक' संज्ञा का एक और उपाय प्रस्तुत किया। वह यह कि "अर्थवद् अधातु:०" तथा "कृत्तद्धित०" इन दो बड़े बड़े सूत्रों के स्थान पर दो छोटे छोटे सूत्र बनाये जायें। पहला सूत्र हो "अतिप् प्रातिपदिकम्" जिसका अर्थ होगा "तिङन्त तथा सुबन्त शब्दों से भिन्न शब्दों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा हो' । पतंजलि ने भी प्रथम पुरुष के तिप्', 'तस्', झि' की 'तिप्' विभक्ति में विद्यमान 'तिप्' से लेकर सप्तमी विभक्ति के 'डि', 'पोस्', 'सुप्', के अन्तिम 'सुप्' में विद्यमान 'प',तक एक 'प्रत्याहार' माना है। "अर्थवत०" इस सत्र के भाष्य में "अप्रत्ययः इति चेत तिब-एकादेशे प्रतिषेधोऽन्तवत्त्वात्" इस वार्तिक में प्रयुक्त 'तिप्' की व्याख्या करते हुए कैयट ने स्पष्ट लिखा है-- "तिपस् तिशब्दाद् आरभ्य सुप: पकारेण प्रत्याहारः" (महा० २.१.४५, पृ० ६७-६८)। इस प्रकार इस प्रथम सूत्र "अतिप् प्रातिपदिकम्” से समास वाले प्रयोगों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा सिद्ध हो जायेगी। दूसरा सूत्र होगा- “समासश्च" । पहले सूत्र "अतिप् प्रातिपदिकम्" से ही समास की 'प्रातिपदिक' संज्ञा सिद्ध है, इसलिए यह सूत्र नियामक होगा कि 'यदि सुप्-तिङ्-भिन्न समुदाय की प्रातिपदिक' संज्ञा हो तो केवल समासयुक्त प्रयोगों की ही हो'। इस प्रकार दोनों ही काम हो जायेंगे। पूर्वपक्ष के द्वारा इस रूप में प्रस्तुत किये गये उपर्युक्त उपाय के निराकरण के रुप में यह कहा गया कि केवल "अतिप् प्रातिपदिकम्" इतने सूत्र से ही काम नहीं चलेगा। अर्थवान् शब्दों में विद्यमान अनर्थक वर्णों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा न हो जाय इसलिए विशेषण के रूप में 'अर्थवत्' शब्द तो सूत्र में रखना ही होगा और उसके रहने पर समास के प्रयोगों में 'प्रातिपदिक' संज्ञा का प्रभाव भी पूर्ववत् ही स्थिर रहेगा। ऐसी स्थिति में ऊपर का सारा प्रयास व्यर्थ है । इस प्रकार, 'अर्थवत्' इस विशेषण के अनिवार्य होने पर, समास वाले प्रयोगों की 'प्रातिपदिक' सज्ञा सभी को अभीष्ट है इसलिये, समास-युक्त पदों की सामुदायिक अर्थवत्ता, अथवा समुदाय में अर्थाभिधान की 'शक्ति', भी 'अनुमान' प्रमाण के आधार पर सिद्ध माननी चाहिए । 'अनुमान' प्रमाण का स्वरूप यहां यह है कि अर्थवत्ता 'कारण' है तथा 'प्रातिपदिक' संज्ञा 'कार्य' । 'कारण' के होने पर ही 'कार्य' होता है। समासयुक्त प्रयोगों में 'प्रातिपदिक' संज्ञा रूप 'कार्य' दिखाई देता है, अतः अर्थवत्ता रूप 'कारण' को भी वहां विद्यमान मानना ही चाहिये । जहाँ अर्थवत्ता रूप 'कारण' नहीं For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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