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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समासादि-वृत्त्यर्थं ४२१ यहाँ उस विशिष्ट 'शक्य' ग्रर्थ को नैयायिक मानते ही नहीं। इसलिये 'लक्षरणा' की बात स्वतः समाप्त हो जाती है। इस तरह, 'लक्षणा' वृत्ति के उपस्थित न होने पर, लक्ष्यार्थ की उपस्थिति नहीं होगी । लक्ष्यार्थ के अभाव में समस्त शब्द की 'प्रातिपदिक' संज्ञा तथा तदाश्रित 'सु' आदि विभक्तियों की उत्पत्ति नहीं होगी । इस रूप में सारे समास-युक्त पद 'अपद', अर्थात् असाधु, हो जायंगे तथा 'प्रपद' होने के कारण, "अपदं न प्रयुजीत " इस नियम के अनुसार, इस प्रकार के प्रयोगों का लोप हो जायगा । [समासयुक्त पदों की 'प्रातिपदिक' संज्ञा के उपपादन का एक अन्य उपाय तथा उसका निराकरण ] पथ ' तिप् तस् - भि' इत्यतः 'ति' इत्यारभ्य 'ङि- प्रोस् -सुप्' इति पकारेण 'तिप्' प्रत्याहारो भाष्य-सिद्धः । तत्-पर्युदासेन “प्रतिप् प्रातिपदिकम् " इत्येव सूत्र्यताम् । ततः " समासश्च" इति सूत्रं नियमार्थम् अस्तु किं सूत्रद्वयेन । इति 'सुप तिङन्त भिन्नं प्रातिपदिकम् ' इत्यर्थात् समास्वापि सास्वाद् इति 'समासश्च' इत्यस्य नियमार्थत्वं सुलभम् इति चेत् ? सत्यम् । प्रत्येकं वर्णेषु संज्ञा - वारणाय 'प्रर्थवत्' इत्यस्य श्रावश्यकत्वेन समासेऽव्याप्तिस् तद्-प्रवस्थैव । तथा च 'प्रातिपदिक' - संज्ञारूप' कार्यम् एव 'अर्थवत्त्वम्' अनुमा पयति । समासोऽर्थवान् प्रातिपदिकत्वात् । यन् न अर्थवत् न प्रातिपदिकम् । प्रभेदपक्षे 'भू सत्तायाम् ' ( पा० धातुपाठ १.१) इत्याद्यनुकररणवद् इति । तन अब यदि यह कहा जाय कि ( प्रथम पुरुष के ) 'तिप', 'तस्', 'भि' इस ( तिप् के) 'ति' से प्रारम्भ कर के (सप्तमी विभक्ति के) 'ङि', 'ओस्', 'सुप्' इस ('सुप्' के) 'पकार' तक को ( अपने अन्तर्गत करने वाला) 'तिप्' प्रत्याहार भाष्य में स्वीकृत है । उस ( तिप् प्रत्याहार) के पर्युदास (निषेध) के साथ " प्रतिप् प्रतिपदिकम् " ( तिप्' - भिन्न प्रातिपदिक है ) इतना सूत्र बनाया जाय। उसके बाद "समासश्च" (और समास अर्थात् समस्त शब्द की भी 'प्रातिपदिक' संज्ञा होती है) यह सूत्र नियमार्थक बना दिया जाय। दो ( " अर्थवद् अधातुर्-प्रत्ययः प्रातिपदिकम् " तथा "कृत्तद्धित - समासाश्च" इन ) सूत्रों की क्या आवश्यकता ? इस रूप में 'सुबन्त तथा 'तिङन्त' (शब्दों) से भिन्न (शब्द) प्रातिपदिक' हों इस अर्थ के अनुसार 'समास' की भी वह ('प्रातिपदिक' संज्ञा ) प्राप्त हो जायगी तथा ' ( प्रातिपदिक' संज्ञा के सिद्ध हो जाने पर ) “समासश्च " इस सूत्र की नियमार्थता आसानी से हो जायगी ? १. ह० - संज्ञारूपं । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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