SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१० वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मजूषा कुछ अन्य प्रयोग दिखाए हैं । वास्तविकता तो यह है कि 'निष्क्रान्त' के अवयवभूत 'निस्' का ही अर्थ 'निष्क्रान्त' माना जाता है। ऐसी ही स्थिति यहां के अन्य प्रयोगों में भी कल्पनीय है। इस प्रकार का प्राशय स्वयं नागेशभट्ट ने ही लघुमंजूषा तथा महाभाष्य की अपनी उद्द्योत टीका में विस्तार से प्रकट किया है । इस दृष्टि से इन ग्रन्थों के निम्न स्थल द्रष्टव्य हैं : (क) “यत्तु निष्कौशाम्बिः' 'गौरखर:' इत्यादिषु क्रान्त-जाति-विशेषाद्यभिधानम् एकार्थीभाव-कृतम् इत्युक्तम् । तन्न न । भाष्यानुक्तत्वात् । 'निर्' आदीनां पूर्वपदानां क्रान्ताद्यर्थ-वृत्तितया 'उक्तार्थानाम्' इति न्यायेन तद्-अप्रयोग-सिद्ध श्च । गौर-खरादेश्च समुदायस्य जातिविशेषे रूढ़ि-स्वीकारेण न दोष: पंकजादिवत् । एकोपस्थिति-जनकत्व-रूप- 'एकार्थीभाव'-कृतत्वस्य कान्तादि-लोपे संभवाभावाच्च" (लम० पृ० १३८८)। (ख) "वस्तुतस्तु निर्'-आदि-पूर्वपदानां कान्ताद्यर्थ-वृत्तितया एषाम् अर्थानां न 'एकार्थीभाव'-कृत-विशेषत्वम् । अत एव तत्-कृत-विशेषेषु भाष्ये नैतेषाम् उक्तिः” । (महा ० उद्द्योत टीका-२.१.१, पृ० ३६) । प्रथम स्थल की व्याख्या करते हुए लघुमंजूषा की कला टीका में यह स्पष्ट कहा गया है कि इन पंक्तियों में नागेश भट्ट ने भट्टोजि दीक्षित तथा कौण्डभट्ट के कथन का खण्डन किया है-."दीक्षित-भूषण-कृदाद्य क्तिं खण्डयति 'यत्त' इति । समझ में नहीं आता कि परम-लघु-मंजूषा में उन बातों का उल्लेख क्यों मिलता है जिनका स्वयं नागेशभट्ट ने अपनी लघु मंजूषा तथा महाभाष्य की उद्द्योत् टीका में इतने स्पष्ट शब्दों में खण्डन कर दिया है। [व्यपेक्षावादी नैयायिकों तथा मीमांसकों का मत] यत्त व्यपेक्षावादिनो नैयायिक-मीमांसकादयः-न समासे शक्तिः, 'राजपुरुषः' इत्यादौ राजपदादेः सम्बन्धिनि लक्षणयैव ‘राजसम्बन्धवद् अभिन्नः पुरुषः' इति बोधात् । अत एव राज्ञः ‘पदार्थकदेशत्वान्न तत्र 'ऋद्धस्य' इत्यादिविशेषणान्वयः, “पदार्थः पदार्थेन अन्वेति न तु पदार्थंकदेशेन" इत्युक्तेः, “सविशेषणानां वृत्तिर् न वृत्तस्य च' विशेषण-योगो न" (महा० २.१,१ पृ० १४) इत्युक्तेश्च' । १. ह.-समासे न । २. ह..- अभिन्न । महा०-बा। ४. ह.-इति युक्तेश्च । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy